पगडंडी पर कबीर
अमरेश सिंह भदौरिया
ना उसे चौपाल चाहिए,
ना कोई चोला।
वो चलता है अकेला—
कभी गंगा किनारे,
कभी गाँव के बाहर की पगडंडी पर।
हाथ में न कोई ग्रंथ,
माथे पर न कोई तिलक,
बस ज़ुबान में
ऐसे शब्द, जो सीधे आत्मा पर उतरते हैं।
वो कहता है—
“माटी कहे कुम्हार से,
तू क्या रोंदे मोहि?”
और फिर ख़ुद को
हल से जोतती ज़मीन की तरह पेश करता है।
वो कबीर है—
जो मंदिर की घंटी से नहीं,
भीतर के मौन से संवाद करता है।
जिसके दोहे
खेतों के सूखे में भी भीगते हैं,
और मन की कड़वाहट में
शक्कर हो जाते हैं।
उसे ना शास्त्रों की सत्ता चाहिए,
ना भक्ति का तमाशा।
वो सच्चाई को
सूत में पिरोता है,
और पगडंडी पर बिखेरता जाता है।
क्योंकि—
जब कोई
सीधे-सपाट रास्तों को छोड़कर
काँटों वाली पगडंडी चुनता है,
तो वो केवल एक पथिक नहीं रहता—
वो “पगडंडी पर कबीर” बन जाता है।
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