अमरेश सिंह भदौरिया - मुक्तक - 007

01-06-2020

अमरेश सिंह भदौरिया - मुक्तक - 007

अमरेश सिंह भदौरिया (अंक: 157, जून प्रथम, 2020 में प्रकाशित)

1.
मेरी  शायरी   का   इतना तो  असर  रखता है।
ग़ैर    होकर  भी   वो   मेरी   ख़बर  रखता है।
कामयाबी  'अमरेश'  उसकी  यहाँ  निश्चित है,
लक्ष्य पर अपने जो अर्जुन-सी नज़र रखता है।
2.
साँसें   जब   ज़िन्दगी   से   किनारा  कर  गईं।
धड़कनें    चुपचाप    सीने    में    ठहर    गईं।
चमड़ी और मांस के जलने का जज़्बा देखकर,
अस्थियाँ  बेचारी  चिता  में  जलने  से डर गईं।
3.
ढो रही थी बोझ ख़ुद का साँस बनकर।
पल रही  थी धड़कनों में आस बनकर।
साथ   छूटा  ज़िन्दगी   से   जिस घड़ी,
तैरती  है   देह  जल  में  लाश  बनकर।
4.
ज़िंदगी में हर किसी की अपनी-अपनी है कहानी।
हैं कहीं  राजा  के चर्चे  और कहीं पर ख़ास रानी।
शिकवे शिकायत हैं कहीं  बातें कहीं  हैं  प्यार की,
हैं कहीं पर ख़्वाब मीठे और कहीं आँखों में पानी।
5.
अक्स आपका दिल में रहने लगा है।
तन्हाइयों से मेरी कुछ कहने लगा है।
ख़ुशनुमा  हैं   इत्र-सी   बातें  तुम्हारी,
सुनकर   मेरा  मन  महकने  लगा है।
6.
ख़ुद   को    मैं   इस    तरह   बदल  रहा  हूँ।
आग  में   लोहे  की  तरह    पिघल  रहा  हूँ।
दोष न आ जाय  कहीं  मुझमें भी बुलंदी का,
इसलिए फ़ुटपाथ पर अबतक मैं चल रहा हूँ।
7.
सोचते  सबके  लिए  तो  ज़िंदगी आसान होती।
भाईचारे  के  लिए  दुनिया  ना  ये वीरान होती।
झुलसते  न  रिश्ते  कभी  नफ़रतों की  आँच से,
अधिकार के साथ ही कर्तव्य की पहचान होती।
8.
बेचैनियों  में दिन गुज़रते 
रातें    गुज़रती   आह में। 
तड़पता  हूँ   हर  घड़ी मैं 
बस   तुम्हारी   चाह   में। 
लौट   भी   आओ    तुम 
क़सम है तुमको  तुम्हारी, 
पलकें   बिछाए  बैठा  हूँ 
कब  से  तुम्हारी  राह में। 
9.
चंद सपने  और  कुछ  ख़्वाहिशें हैं आसपास।
दूर ले जाती है मुझको आबो दाने की तलाश।
तन्हाई,   चिंता,   घुटन,   बेबसी,   मज़बूरियाँ,
बदलती हैं  रोज़  अपने-अपने ढ़ंग से लिबास।
10.
आपको   मैं अपनी  जागीर समझ बैठा।
हाथ की रेखाओं में तक़दीर समझ बैठा।
ख़ुद बन  सका हूँ  रांझा  ये नहीं जानता,
पर आपको मैं अपनी  हीर  समझ बैठा।
11.
मित्रता  से   प्रेम  तक  आने  का  शुक्रिया।
अपना   राज़दार  मुझे  बनाने का शुक्रिया।
जब-जब मैं टूटा ख़ुद से सँभाला है आपने,
मुश्किलों में मेरी साथ निभाने का शुक्रिया।
12.
वहम  मन में   कब  से  ये पाले हुए हैं।
धरातल  को   हम  ही  सँभाले हुए हैं।
है   अनाचार     की  बेल  बढ़ती गयी,
किन्तु गोठिल ये तलवार भाले हुए हैं।
13.
लुटाये थे तुम्हारे प्यार में
जो अहसास के मोती।
बहारें साथ लायी हैं वही
मधुमास के मोती ।
तल्खियाँ, शिकवे, गिले,
शेख़ी, शरारत में;
हम  ढूँढ़ते हैं आजकल
विश्वास के मोती।
14.
पंख में  हौसले  आँखों  में
आसमान      रखते      हैं।
इसलिए      हम     हरदम 
ऊँची     उड़ान   रखते  हैं॥
साज़िशों   ने     बनाया   है
जबसे  आशियाना शहर में;
फ़ासले भी "अमरेश" अब
दरमियान     रखते      हैं॥
15.
होती    है     कहीं    सुबह 
कहीं     शाम   ढलती   है। 
ज़िंदगी     हर   दिन    नए 
आयाम    बदलती       है। 
दुनियावी    दाँव-पेंच   की 
बस इतनी सी है हक़ीक़त; 
चढ़ते  हैं   पाप   सिर   पर 
लंका   तभी   जलती    है। 

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