दो जून की रोटी
अमरेश सिंह भदौरिया
कहते हैं रोटी गोल होती है।
पर यह भूखे की थाली में अक्सर अदृश्य होती है–
कभी सरकार की फ़ाइलों में फँसी होती है,
कभी जनप्रतिनिधियों के भाषणों में झूलती हुई
और कभी विकास के पोस्टरों में मुस्कुराती हुई।
अब रोटी गेहूँ से नहीं,
सियासत के झूठे वादों से गूँथी जाती है,
विकास के गर्म तवे पर उलटी-पलटी जाती है,
और सरकारी रिपोर्टों की थाली में
नमकहराम आँकड़ों के साथ परोसी जाती है।
बाबू ने अपनी कुर्सी पर जम्हाई ली और कहा–
“भूख? कहाँ है? हमारे डाटा में तो
सबको दो जून की रोटी मिल रही है।”
मैं सोचने लगा,
शायद भूख को भी अब
बायोमेट्रिक वेरिफिकेशन की ज़रूरत है।
वो रिक्शावाला,
जो दिनभर सवारियाँ ढोता है,
रात को घर लौटकर बच्चों से कहता है–
“आज थक गया बेटा,
पर देखो ये सपना–
कल घर में पराँठे बनेंगे,
आलू भी होगा, और मिठाई भी!”
बच्चा भूख से नहीं,
सपने टूटने के डर से सो जाता है।
रोटी की लड़ाई अब पेट की नहीं रही–
अब यह चेहरों की लड़ाई है।
जो चेहरा ज़्यादा चमकदार,
उसे रोटी भी ब्रांडेड मिलेगी।
और जो चेहरा झुलसा हुआ हो . . .
वो रोटी के बजाय पैम्फ़लेट खाएगा।
हमने रोटियों को भी वर्गों में बाँट दिया है–
कुछ रोटियाँ तिजोरियों में बंद हैं,
कुछ परोसी ही नहीं जातीं,
और कुछ सड़क पर पड़ी रहती हैं–
उस आदमी के बग़ल में
जो भुखमरी से मरा है,
पर पोस्टमार्टम रिपोर्ट में
“कुपोषण” लिखा गया है–
शब्दों की शालीनता,
मौत की सच्चाई से बड़ी हो गई है।
रोटी की महिमा को अब
पाठ्यक्रमों में पढ़ाया जाएगा।
UPSC की मुख्य परीक्षा में प्रश्न आएगा–
“रोटी और लोकतंत्र के मध्य अंतर्संबंध स्पष्ट कीजिए।”
कृपया ध्यान दें–
उत्तर ‘संविधान की प्रस्तावना’ से शुरू हो,
और ‘मिड-डे मील’ पर समाप्त हो।
रोटी अब रोटी नहीं रही,
यह अब प्रतिरोध है, प्रतिशोध है,
और कभी-कभी . . .
एक अदृश्य प्रश्नचिह्न बनकर
टँगी रहती है भूखे के माथे पर–
“क्या मुझे जीने का अधिकार है?”
1 टिप्पणियाँ
-
बहुत ही बेहतरीन कविता है।
कृपया टिप्पणी दें
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