सती अनसूया

01-06-2025

सती अनसूया

अमरेश सिंह भदौरिया (अंक: 278, जून प्रथम, 2025 में प्रकाशित)


वो कोई महल नहीं था—
जहाँ त्रिदेव पहुँचे थे, 
वो एक कुटिया थी, 
जिसकी दीवारों पर
श्रद्धा की छायाएँ थीं
और देहरी पर
मौन की दीपशिखा जल रही थी। 
 
अनसूया वहाँ केवल एक स्त्री नहीं थीं, 
वो ऋचाओं की प्रतिमा थीं, 
एक ऐसा श्लोक
जो किसी ग्रंथ में नहीं, 
सिर्फ़ आचरण में लिखा जाता है। 
 
जब त्रिदेव
कुशलता से प्रश्न लेकर आए, 
तो उत्तर में कोई वाद-विवाद नहीं था—
केवल ममत्व का पलना था, 
जिसमें देवताओं ने
स्वयं को बालक होते देखा। 
 
उनके झुलने की ध्वनि
घंटी की तरह न थी—
वह तो अंतरात्मा के जल में उठती लहरें थीं, 
जिन्होंने ब्रह्मा के सृजन को, 
विष्णु के पालन को, 
शिव के संहार को
एक मातृस्पर्श की परिभाषा में बदल दिया। 
 
उन्होंने कुछ सिद्ध नहीं किया, 
उन्होंने बस वह मौन जिया
जिसमें सत्य स्वयं को विस्मृत कर देता है। 
 
वे कोई कविता नहीं थीं, 
बल्कि उस अनुभूति की आहट, 
जो अक्षर से पहले आती है, 
जहाँ भाषा भी
नत-मस्तक हो जाती है। 

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