नदी और तालाब
अमरेश सिंह भदौरियातालाब से नहीं रहा गया, उसने पूछ ही लिया नदी से, “तुम इस तरह भटकती हुई कहाँ जा रही हो?”
नदी ने बड़े लहज़े से कहा, “अपनी मंज़िल की ओर जो मेरे जीवन का स्वर्णिम स्वप्न है।”
तालाब ने कहा, “मुझे देखकर तुमको ये नहीं लगता कि तुम जिस ख़ुशी की तलाश में इधर-उधर भटक रही हो वह सब मुझे बिना भटके हुए ही मिली है। ख़ुशियों की तलाश में अपने घर को छोड़ना, इस तरह से भटकना भला ऐसा भी कोई स्वप्न है जो तुम्हें अपनी जन्मभूमि से दूर करने के बाद भी आनंद की अनुभूति देता है? क्या तुम्हारी नज़र में घर पर रहने से बड़ा भी कोई आनंद हो सकता है? अब मुझे ही देखिए मैं एक जगह पर रहकर भी प्रसन्न हूँ, सन्तुष्ट हूँ।”
नदी ने तालाब को प्रतिउत्तर दिया, “गतिशीलता का नाम ही जीवन है, ठहराव का नहीं। कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है। मेरी आँखों में सपने हैं, उन्हें पूरा करने का जज़्बा है। जन्मभूमि छोड़ने का साहस भरा संकल्प है। सपने को सच करने के लिए संघर्ष का आशावादी चिंतन है। सफ़र का आनंद मेरी हौसला अफ़्ज़ाई करता है। लहरों का संगीत मेरी यात्रा की थकान को मिटाने का काम करता है। किनारों के साथ कि गई अठखेलियाँ मेरा मनोरंजन है। जब मंज़िल का सफ़र ही इतना आनंदमय है तो मंज़िल मिलने पर तो तुम सहज ही अनुमान लगा सकते हो। अनुमान इसलिए कह रही हूँ कि काश! तुम ये सब महसूस कर पाते? पर तुम तो ठहरे हुए हो तुम्हारा कोई स्वप्न भी नहीं है। जीवन का अनुमान तुम्हें होगा भी कैसे? देखना यही ठहराव एक दिन तुम्हारे स्वरूप को समय की गर्द/काई बनकर तुमको ढक लेगा, तब तुम किसी के अधरों की प्यास भी नहीं मिटा पाओगे, तुम्हारा जीवन अभिशप्त हो जाएगा। मेरी एक बात तुम याद रखना . . . इतिहास सदैव संघर्ष का ही लिखा गया है, ठहराव का नहीं।”
इतना कह कर नदी अपने गंतव्य की ओर चली गई। नदी के मुख से ये दार्शनिक वचन सुनकर तालाब शर्म से पानी-पानी हो गया।