सँकरी गली

01-05-2025

सँकरी गली

अमरेश सिंह भदौरिया (अंक: 276, मई प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

सपनों की गठरी बाँधे
मैं चला था उस ओर, 
जहाँ खुला आसमान हो
और सोच की उड़ान। 
 
पर यह गली . . . 
अब भी उतनी ही सँकरी है—
जैसे वर्षों पहले थी। 
ईंटों की दीवारें
अब भी चुप हैं, 
उनके बीच से
आती हैं दबे पाँव अफ़वाहें
और बँधी हुई हँसी की गूँज। 
 
यहाँ रिश्ते भी
गली के मोड़ों जैसे हैं—
सँकरे, उलझे, 
और अंधे। 
 
हर दुआ एक खिड़की से झाँकती है, 
और हर बद्दुआ
दूसरी छत से टपकती है। 

यहाँ इज्ज़त का मतलब है
औरत की चुप्पी, 
और विद्रोह का अर्थ—
एक 'बदचलन’ नाम। 
 
सँकरी गली में
हर लड़की की चाल नापी जाती है, 
और हर लड़के को
सीधा नहीं, ऊँचा चलना सिखाया जाता है। 
 
यहाँ आत्मा भी
घुटनों के बल चलती है। 
 
मैं सोचता हूँ—
कभी ये गली चौड़ी होगी क्या? 
कभी यहाँ से गुज़रेंगे
स्वतंत्रता के रथ? 
या फिर
हर पीढ़ी
इन्हीं दीवारों से टकराकर
अपने सपने तोड़ती रहेगी? 

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