अहिल्या का प्रतिवाद
अमरेश सिंह भदौरिया
जब धर्म की कसौटी पर न्याय मौन रहा—
मैं वहीं से बोलती हूँ।
मैं
न तो शिला हूँ,
न अग्नि की ज्वालाओं में शुद्धि खोजती कोई सत्ता।
मैं वह मौन हूँ
जो युगों से भाषा बनने की प्रतीक्षा में है।
अहिल्या—
नाम भर नहीं,
एक प्रतीक हूँ उस निर्णयहीन नारी का
जिसे पुरुष-नीति ने
अधिकारहीन बना
धर्म की चौखट पर रख दिया।
क्या मेरा अपराध
केवल इतना था
कि मैंने छल को पहचान न सकी?
या फिर यह कि
मैं स्त्री थी—
मौन और सहनशील होने के लिए रची गई?
गौतम की क्रोधाग्नि
और राम के चरण-स्पर्श के बीच
जो युग बीते,
मैं हर युग में उस स्त्री की छाया बनी,
जिसे पुरुषों ने पूजने से पहले तोड़ा,
और मोक्ष कह कर मौन सौंप दिया।
मैं पूछती हूँ—
क्या सतीत्व वह है
जो युग-युगांतर से
स्त्री को सिद्ध करना पड़ता है
पुरुष के संदेह की अग्नि में?
नहीं।
अब मैं वह स्त्री हूँ
जो अपने अंतर में अग्नि भी है
और शान्ति भी।
मैं स्वयं प्रश्न हूँ,
स्वयं उत्तर भी।
मेरा सतीत्व
अब किसी ऋषि की स्वीकृति का मोह नहीं रखता,
न किसी अवतार की कृपा का आकांक्षी है।
यह मेरी जाग्रत चेतना है,
जो मिथकों के भीतर से
अपने लिए एक नवशास्त्र रच रही है।
अहिल्या अब पत्थर नहीं—
वह चेतना है,
जो प्रतीक नहीं बनती,
प्रश्न बनती है।
वह वह मौन है,
जिसमें शब्द जन्म लेते हैं—
और वह प्रतिरोध,
जो करुणा से नहीं,
विवेक से उपजता है।
जो सत्य के लिए
अब किसी अवतार की प्रतीक्षा नहीं करती—
बल्कि स्वयं इतिहास को रचती है।
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