बरगद और पीपल

01-10-2025

बरगद और पीपल

अमरेश सिंह भदौरिया (अंक: 285, अक्टूबर प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

आज की दुनिया में चमक-दमक, तेज़ी और ‘इंस्टेंट’ उपलब्धियों का आकर्षण इतना बढ़ गया है कि गहराई, स्थिरता और धैर्य जैसे शब्द धीरे-धीरे हाशिये पर जाते लगते हैं। सोशल मीडिया की हर ‘ट्रेंड’ बनती संस्कृति, त्वरित प्रसिद्धि और तात्कालिक सफलता की होड़ ने लोगों को यह विश्वास दिला दिया है कि बस ध्यान आकर्षित कर लेना ही असली प्रगति है। लेकिन इतिहास और प्रकृति दोनों सिखाते हैं कि असली और टिकाऊ विकास किसी ‘तत्काल’ के जादू में नहीं, बल्कि गहरी जड़ों में छिपा होता है। 

यही संदेश एक साधारण-सी पंक्ति में निहित है—

‘गहरी जड़ का बरगद’ वह प्रतीक है, जहाँ व्यक्ति, संस्था या राष्ट्र अपनी नींव में मूल्य, धैर्य और स्थिरता की माटी सँजोकर खड़ा होता है; जबकि ‘दीवार पर उगा पीपल’ वह रूपक है, जो क्षणिक हरियाली, तात्कालिक चकाचौंध और बिना आधार के पनपी उपलब्धियों का संकेत देता है। यह वाक्यांश हमें बताता है कि स्थायी विकास, चरित्र और प्रभाव उन्हीं को प्राप्त होते हैं, जिनकी जड़ें धरती की गहराई में उतरती हैं, न कि जो हवा में उगते हैं। 

पहली नज़र में यह एक काव्यात्मक बिंब जैसा लगता है, लेकिन दरअसल यह आज के समाज, राजनीति, अर्थव्यवस्था और व्यक्तिगत जीवन के लिए एक गहरी सीख है। बरगद और पीपल का यह अंतर हमारी सोच और हमारे भविष्य के रास्ते तय करने का पैमाना बन सकता है। दीवार की दरारों में उगा पीपल तेज़ी से बढ़ता है। बिना ज़्यादा संसाधनों के, बिना गहरी मिट्टी में अपनी जड़ें फैलाए वह दूर से देखने पर हरा-भरा लगता है और तुरंत ध्यान खींच लेता है। यही उसकी ताक़त भी है और उसकी सबसे बड़ी कमज़ोरी भी। आधुनिक संदर्भ में यह उस ‘इंस्टेंट’ संस्कृति का प्रतीक है, जहाँ सफलता को केवल ‘लाइक्स’ की संख्या, “फॉलोअर्स’ की भीड़ या रातों-रात प्रसिद्धि के पैमाने से मापा जाता है। ऐसे व्यक्तित्व या संस्थाएँ सतही प्रतिक्रियाओं पर निर्भर रहती हैं; उनकी जड़ें गहरी नहीं होतीं। ज़रा-सा भी बदलाव, विपरीत परिस्थिति का एक झटका या ज़मीन की नमी में कमी—और उनका अस्तित्व ख़तरे में पड़ जाता है। क्योंकि उनकी नींव ईंटों और सीमेंट की अस्थिर दरारों पर टिकी होती है, मिट्टी की गहराई में नहीं। इसीलिए उनका हरा-भरा रूप क्षणभंगुर होता है। हमारे समाज में यह प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। राजनीति में तात्कालिक घोषणाएँ, व्यापार में त्वरित लाभ के शॉर्टकट, शिक्षा में केवल परीक्षा पास करने के लिए रटना—ये सब दीवार पर उगे पीपल की तरह हैं। बाहर से आकर्षक, भीतर से कमज़ोर। इसके विपरीत, गहरी जड़ वाला बरगद सदियों तक मौन खड़ा रहता है। उसकी वृद्धि धीमी होती है, लेकिन हर चरण में मज़बूत होती है। वह छोटी-छोटी बातों पर शोर नहीं करता, न तत्काल प्रसिद्धि चाहता है। उसकी ख्याति उसकी विशालता, उसकी छाँव की ठंडक और उसकी लटकी हुई जड़ों की मज़बूती में है, जो हर तूफ़ान को सहकर उसे और दृढ़ बनाती हैं। बरगद का यह दर्शन हमें सिखाता है कि स्थायी प्रगति के लिए ‘फ़ास्ट’ होना ज़रूरी नहीं, बल्कि ‘फ़ाउंडेशनल’ होना ज़रूरी है। बरगद की तरह बनने का अर्थ है—अपने भीतर वह नैतिक और बौद्धिक आधार तैयार करना जो समय, परिस्थिति और दबाव में भी हमें हिला न सके। 

विभिन्न क्षेत्रों में बरगद और पीपल

शिक्षा में—

बरगद वह शिक्षा है जो गहन ज्ञान, मौलिक समझ और आलोचनात्मक सोच की जड़ें बनाती है। ऐसे विद्यार्थी धीमी गति से सही दिशा में आगे बढ़ते हैं, लेकिन उनका ज्ञान समय के साथ और पुख़्ता होता जाता है। इसके विपरीत, पीपल वह शिक्षा है जो केवल परीक्षा पास करने के लिए रटना और अंक जुटाना सिखाती है। ऐसे विद्यार्थी कुछ समय के लिए आगे निकल जाते हैं, पर कठिन परिस्थितियों में उनका ज्ञान काम नहीं आता, क्योंकि जड़ें गहरी नहीं होतीं। 

व्यापार में—

बरगद वह उद्यम है, जो नैतिक मूल्यों, गुणवत्तापूर्ण उत्पाद और टिकाऊ रणनीति पर आधारित होता है। वह धीरे-धीरे ही सही, पर स्थायी बाज़ार और विश्वास अर्जित करता है, और संकट में भी टिके रहने की क्षमता रखता है। इसके उलट, पीपल वह व्यवसाय है जो त्वरित लाभ के लिए अनैतिक शॉर्टकट अपनाता है, क्षणिक चमक दिखाता है, लेकिन एक छोटी-सी चूक या बाज़ार के झटके से ही ढह जाता है। 

राजनीति और नेतृत्व में—

बरगद वह नेतृत्व है, जो दूरदर्शिता, सिद्धांतों और संस्थागत मज़बूती पर आधारित शासन चलाता है। उसका काम धीरे-धीरे दिखता है, लेकिन वह समाज और राष्ट्र को दीर्घकालिक स्थिरता देता है। दूसरी ओर, पीपल वह राजनीति है, जो केवल लोकप्रियता, भावनात्मक बयानबाज़ी और चुनावी तिकड़मों पर टिकी होती है। ऐसी सत्ता कुछ समय के लिए जनता को आकर्षित तो करती है, लेकिन संकट आते ही उसकी कमज़ोरियाँ सामने आ जाती हैं। 

व्यक्तिगत जीवन में—

बरगद वह व्यक्ति है, जो चरित्र की दृढ़ता, ईमानदारी और गहरी आत्म-चेतना की जड़ों पर खड़ा होता है। उसका जीवन शायद ‘ग्लैमरस’ न लगे, लेकिन वह हर परिस्थिति में संतुलित, विश्वसनीय और स्थिर रहता है। पीपल वह जीवनशैली है, जो बाहरी दिखावे, तात्कालिक प्रशंसा और जल्दबाज़ी में लिए गए निर्णयों पर टिकी होती है। ऐसे लोग क्षणिक सफलता पाते हैं, पर समय के साथ उनका व्यक्तित्व खोखला पड़ जाता है। 

इन सभी क्षेत्रों में, अगर हम सतही लाभों और क्षणभंगुर उपलब्धियों की जगह दीर्घकालिक मज़बूती को प्राथमिकता दें, तो व्यक्तिगत और सामूहिक दोनों स्तरों पर बदलाव सम्भव है। 

हमारा देश आज तेज़ी से विकास के पथ पर है। आर्थिक वृद्धि दर, तकनीकी उन्नति और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर बढ़ती भूमिका—ये सब संकेत हैं कि भारत की यात्रा नई ऊँचाइयों की ओर है। लेकिन इस दौड़ में यह सवाल और भी अहम हो जाता है कि क्या हमारी नींव इतनी मज़बूत है कि हम हर झटके को सह सकें? सिर्फ़ ऊँची इमारतें बनाना पर्याप्त नहीं होता; नींव कमज़ोर हो तो पहला भूकंप सब कुछ गिरा सकता है। ठीक यही बात संस्थाओं, नीतियों और समाज के चरित्र पर भी लागू होती है। यदि हम स्थायी और गहरी जड़ों वाला विकास नहीं करेंगे, तो हर संकट हमें पीछे धकेल सकता है। बरगद बनने का मतलब है—धैर्य, अनुशासन, नैतिकता और दूरदर्शिता के साथ निर्माण करना। यह प्रक्रिया धीमी है, लेकिन इसके परिणाम सदियों तक टिकते हैं। आज के युवाओं को यह समझना होगा कि असली ताक़त ‘ट्रेंड’ में आने में नहीं, बल्कि चरित्र और ज्ञान की गहराई में है। सोशल मीडिया की दुनिया में ‘फ़ॉलोअर्स’ की भीड़ तात्कालिक ख़ुशी दे सकती है, लेकिन कठिन परिस्थितियों में वही भीड़ सबसे पहले साथ छोड़ देती है। 

अगर हम अपने युवाओं को बरगद बनने का संस्कार देंगे—उन्हें धैर्य, मेहनत, ईमानदारी और गहरी समझ का मूल्य सिखाएँगे—तो वे न केवल अपने जीवन में सफल होंगे बल्कि समाज और राष्ट्र को भी स्थायी मज़बूती देंगे। सिर्फ़ व्यक्ति ही नहीं, संस्थाओं और सरकार को भी यह सोचना होगा कि वे किस राह पर हैं। तात्कालिक लाभ या वोट-बैंक की राजनीति से संस्थाएँ कमज़ोर होती हैं। नीतियों का उद्देश्य केवल त्वरित लाभ या लोकप्रियता नहीं, बल्कि भविष्य की पीढ़ियों के लिए मज़बूत आधार तैयार करना होना चाहिए। शिक्षा नीति, आर्थिक नीति, न्याय व्यवस्था, सामाजिक कल्याण योजनाएँ—हर क्षेत्र में ‘गहरी जड़’ वाला दृष्टिकोण अपनाना होगा। यही असली राष्ट्रनिर्माण है। 

बरगद बनना केवल व्यक्तिगत नहीं, सामूहिक यात्रा है। समाज और राष्ट्र तभी मज़बूत होंगे, जब हर नागरिक अपनी जड़ों को सींचेगा, जब हर संस्था अपने सिद्धांतों की रक्षा करेगी, जब नेतृत्व तात्कालिक वाहवाही से ऊपर उठकर दीर्घकालिक दृष्टि अपनाएगा। बरगद बनने का मतलब है—अपने मूल्यों, परंपराओं और ज्ञान की गहराई को आधुनिकता के साथ संतुलित करना। यह ठहराव नहीं, बल्कि स्थायी विकास की प्रक्रिया है। आज जब हमारा देश तीव्र गति से आगे बढ़ रहा है, हमें यह तय करना होगा कि हम क्या बनना चाहते हैं—क्षणिक वाहवाही पर झूमने वाला पीपल, या गहरे मूल्यों और मज़बूत संस्थाओं पर टिका बरगद। हमें छोटी-छोटी सफलता पर शोर मचाने की आदत छोड़कर अपनी ऊर्जा अपनी जड़ों को सींचने में लगानी होगी। हमें अपने युवाओं को यह सिखाना होगा कि चरित्र, ईमानदारी और गहन ज्ञान की जड़ें किसी भी सोशल मीडिया ‘ट्रेंड’ से कहीं ज़्यादा मज़बूत होती हैं। 

यदि हम सामूहिक रूप से बरगद बनने का संकल्प लेते हैं, तो हमारी सभ्यता और हमारे राष्ट्र को हिलाना असंभव होगा। क्योंकि जो अपनी नींव की गहराई जानता है, उसे हर तूफ़ान से लड़ने का हौसला स्वतः मिल जाता है। 

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

सामाजिक आलेख
कविता
किशोर साहित्य कविता
हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
सांस्कृतिक आलेख
साहित्यिक आलेख
कहानी
लघुकथा
चिन्तन
सांस्कृतिक कथा
ऐतिहासिक
ललित निबन्ध
शोध निबन्ध
ललित कला
पुस्तक समीक्षा
कविता-मुक्तक
हास्य-व्यंग्य कविता
गीत-नवगीत
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में