आस्तीन के साँप

01-05-2025

आस्तीन के साँप

अमरेश सिंह भदौरिया (अंक: 276, मई प्रथम, 2025 में प्रकाशित)


(दफ़्तर की साज़िश) 
 
दफ़्तर में साँप
कुर्सियों पर नहीं—
कंधों पर रेंगते हैं, 
फ़ाइलों की फड़फड़ाहट में
फुफकारते हैं। 
 
वे मुस्कुराते हैं, 
“सर, आप ही तो हमारे आदर्श हैं!”
कहकर
आपकी रिपोर्ट दबा आते हैं
किसी और की फ़ाइल के नीचे। 
 
वे चाय मँगवाते हैं
आपके लिए, 
पर घोलते हैं
अपने मतलब की शक्कर
और परोसते हैं
मीठी मार! 
  
वे बैठते हैं पास, 
जैसे वर्षों के साथी हों—
और अगली बैठक में
आपका नाम काटने का
प्रस्ताव पढ़ते हैं। 
 
उनकी मेल में हँसी होती है, 
कार्बन कॉपी में षड्यंत्र, 
और ‘फ़ॉरवर्ड’ में
आपकी मेहनत का
धुँआधार विसर्जन। 
 
वे गलियों में नहीं, 
गले में बसते हैं—
जैसे शुभकामना के बहाने
गूँजते विषपान। 
 
वे सलाह नहीं देते, 
संकेत करते हैं—
जिससे आपकी प्रगति
धीरे-धीरे
आपके ही पैरों में बाँध दी जाए। 
 
हर तारीफ़ के नीचे
एक खुरचती हुई बात छिपी होती है, 
हर मुस्कान के पीछे
एक नोटिंग—
“कमी है— नेतृत्व क्षमता में।”

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