धरती की पीठ पर
अमरेश सिंह भदौरिया
मैंने देखा है
धरती की पीठ पर
एक किसान उगाता है
सिर्फ़ अनाज ही नहीं,
बल्कि अपनी उम्मीदें भी।
उसकी हथेली की दरारों में
बरसों की धूप छुपी है,
और आँखों में
अब भी आसमान तक पहुँचने का सपना।
जब बारिश धो देती है मिट्टी की प्यास,
तो उसके चेहरे की झुर्रियाँ
मुस्कुराहट बन जाती हैं।
उसी खेत की मेड़ पर
एक औरत सिर पर घड़ा रखे
अपने हिस्से की नदी खोजती है,
और चिड़ियाँ
दिनभर उसकी साँसों में
उड़ने का हौसला भरती हैं।
गाँव के मंदिर की घंटी
अब भी पुराने सुर में बजती है,
और पीपल की छाँव
हर दुखिया का आसरा है।
मैंने सीखा है,
कि जहाँ शहरों की भीड़ में
इंसान खो जाते हैं,
वहीं गाँव की पगडंडियाँ
हर पाँव की पहचान रखती हैं।
धरती की पीठ पर
जब भी एक बीज गिरता है,
तो केवल पौधा ही नहीं,
एक युग उगता है।
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