संपर्क का सत्य: गुरु और प्रचारक के बीच का फ़ासला
अमरेश सिंह भदौरिया“शिक्षक वह नहीं जो केवल किताब से पढ़ाए,
शिक्षक अब वह है जो दरवाज़े-दरवाज़े जाए!”
भूमिका: जब गुरु को प्रचारक बनना पड़ा
कभी गुरु का स्थान समाज में सर्वोच्च हुआ करता था। वह पथ-प्रदर्शक था, ज्ञान का स्रोत और नैतिकता का प्रतिमान। उसकी वाणी में सरस्वती का वास होता था और उसके सान्निध्य में ज्ञान की गंगा प्रवाहित होती थी। आज वही गुरु, समय की बदलती हवाओं और विद्यालय प्रबंधन के आदेशों के चलते ‘संपर्क’ नामक एक छद्म अभियान का भाग बन गया है। चाय की चुस्कियों, झुँझलाए चेहरों और उपेक्षा से बंद होते दरवाज़ों के सामने वह अपनी गरिमा को दाँव पर लगाता फिरता है। यह केवल एक अभियान नहीं, बल्कि एक युग की सामाजिक और नैतिक त्रासदी है— जहाँ ज्ञान के पुजारी को बाज़ार की भाषा सिखाई जा रही है।
पंडित रामलाल जी, नाम से ही नहीं, कर्म से भी पंडित हैं। निजी विद्यालय में हिंदी अध्यापक हैं। उनके लिए ब्लैकबोर्ड पर खड़िया घिसना किसी तपस्या से कम नहीं। जब बच्चों की आँखों में ज्ञान की चमक दिखती है, तो उन्हें जो आत्मिक संतोष मिलता है, वह किसी वेतन या पुरस्कार से परे होता है। पर जब शिक्षा ‘सेवा’ से निकलकर ‘उद्योग’ के दलदल में जा फँसी, तब रामलाल जी जैसे अनेक शिक्षक, ‘गुरु’ कम और ‘संपर्क साधक’ अधिक हो गए। यही वह संक्रमण काल है जहाँ ज्ञान का व्यापार शुरू हुआ और गुरु का अपमान।
‘संपर्क‘–शिक्षा व्यवस्था की छद्म संज्ञा
‘संपर्क‘–यह एक ऐसा शब्द है जो अब निजी विद्यालयों के शिक्षकों के लिए भय और उपहास का प्रतीक बन गया है। यह विद्यालय प्रबंधन द्वारा जारी वह ‘शाही फरमान’ है, जो वेतन पाने हेतु उपस्थिति दर्ज कराने जितना ही अनिवार्य हो गया है। यह केवल नामांकन बढ़ाने की क़वायद नहीं, बल्कि शिक्षक की आत्मा पर थोपा गया वह बोझ है, जो उसकी गरिमा को रौंद डालता है।
सूरज की सुनहरी किरणें जब धरती को चूम रही थीं, रामलाल जी ‘संपर्क अभियान’ के लिए तैयार हो रहे थे। न यह विवाह का अवसर था, न कोई श्रद्धांजलि सभा। यह था ‘संपर्क’ का पावन दिन। रजिस्टर झोले में, प्रवेश प्रपत्र बग़ल में और आत्म-सम्मान की पोटली जेब में कसकर दबाए, रामलाल जी महल्लों की गलियों में चल पड़े—बच्चों को ‘खोजने‘, शिक्षा को ‘बेचने’ और अपनी टूटती गरिमा के कुछ बचे-खुचे अवशेषों को बचाने।
पहला घर, पहला झटका: ‘सुरेश की शादी हो चुकी है, बच्चा कौन?’
दरवाज़ा खटखटाया। भीतर से रूखी आवाज़ आई, “कौन है?”
रामलाल जी ने मुस्कुराते हुए कहा, “जी, शुभ विद्या मंदिर से शिक्षक रामलाल बोल रहा हूँ। आपके बच्चे सुरेश के नामांकन के संदर्भ में . . . “
सामने खड़े व्यक्ति के चेहरे पर आश्चर्य और खीझ का मिश्रण था, “सुरेश? वो तो मेरा छोटा भाई है, हाल ही में शादी हुई है उसकी। कौन बच्चा?”
रामलाल जी के सामने वर्षों की शिक्षा-नीति, नैतिकता और शिक्षक-अभिमान एक झटके में ढह गया। यह केवल एक नाम की त्रुटि नहीं थी, यह उस व्यवस्था का प्रतीक था जो शिक्षकों को बिना पर्याप्त जानकारी के अँधेरे में भेजती है–मानो वे केवल डेटा-एंट्री ऑपरेटर हों।
प्रश्न, जैसे पीएच.डी. का मौखिक परीक्षाफल
कुछ अभिभावक शिक्षक को शिक्षक नहीं, सीधे उत्पाद-बेचने वाला समझते हैं। उनके प्रश्नों की बौछार पीएच.डी. की मौखिक परीक्षा जैसी कठिन लगती है:
“आपके स्कूल में ऐसा क्या है जो सरकारी में नहीं है?” (मानो शिक्षा कोई ब्रांडेड वस्तु हो)
“क्या आप गारंटी लेते हैं कि बच्चा फ़र्स्ट आएगा?” (मानो शिक्षा कोई निवेश योजना हो)
“स्कॉलरशिप मिलती है क्या?” (मानो विद्यालय कोई वित्तीय संस्थान हो)
रामलाल जी भीतर ही भीतर तिलमिलाते हैं—“क्या हम शिक्षक हैं या इंश्योरेंस एजेंट?”
जलपान का रंगमंच
‘संपर्क’ में जलपान की व्यवस्था भी एक दृश्य नाटक जैसा होती है। कहीं टूटे बिस्किट, कहीं चाय में चीनी ख़ुद डालनी पड़ती है। एक बार पूजा का प्रसाद खा बैठे—बाद में पता चला, वह बहू के व्रत का था। दूसरी जगह नमकीन लौटा दी—अपमान माना गया। समाज अब शिक्षक से हर हाल में ‘विनम्र’ होने की अपेक्षा करता है, मानो उसका आत्म-सम्मान कोई मायने ही नहीं रखता।
मोबाइल युग की प्रतिक्रिया
एक बार एक बच्चा घर के भीतर से बोला, “मम्मी, अंकल स्कूल से आए हैं।”
माँ ने बिना चेहरा दिखाए कहा, “कह दो, अभी नहीं भेजना है। जब भेजना होगा, ख़ुद ले चलेंगे।”
रामलाल जी हताश हुए—“बच्चे नहीं, अब तो अभिभावक ही ड्रॉपआउट हो गए हैं।”
संवाद नीति बनाम शिक्षक का संयम
प्रधानाचार्य ने कहा, “रामलाल जी, संपर्क का असर क्यों नहीं दिख रहा?”
रामलाल जी कहना चाहते थे, “मैं शिक्षक हूँ, बाज़ारू प्रचारक नहीं।” पर वे चुप रह गए। क्योंकि आज शिक्षक की सफलता उसकी कक्षा की गुणवत्ता से नहीं, ‘संपर्क सफलता’ अनुपात से मापी जाती है।
रिपोर्टिंग की नवकला
अब शिक्षक की डायरी में लिखा जाता है:
✔ कितने घर गए?
✔ कितने बिस्किट खाए?
✔ कितने अभिभावक नाराज़ हुए?
✔ कितने बच्चों ने आने की ‘संभावना’ जताई?
यह शिक्षा नहीं, ‘लीड जनरेशन’ है। शिक्षक अब ज्ञान नहीं, ग्राहकों की सूची तैयार कर रहा है।
एक शिक्षक की पीड़ा
रामलाल जी को वो दिन याद आते हैं, जब बच्चे कविता समझाने आते थे। अब वही शिक्षक बच्चों को समझाने घर-घर जाते हैं।
अब बच्चे नहीं दौड़ते— शिक्षक दौड़ते हैं।
अब विद्या नहीं बिकती— विज्ञापन बिकता है।
अब संपर्क नहीं होता— संघर्ष होता है।
अर्थगर्भित निष्कर्ष
कभी शिक्षक विद्यालय की आत्मा होता था, आज वह मार्केटिंग टीम का एक अदना सदस्य है। न वेतन की गारंटी, न सम्मान की शर्त। विद्यालय प्रबंधन कहता है—“पढ़ाना तुम्हारा काम है, लेकिन बच्चा लाना भी तुम्हारी ज़िम्मेदारी।”
रामलाल जी अब भी संपर्क पर जाते हैं—वही मुस्कान, वही संयम, वही बिखरती गरिमा। उनकी आँखों में भविष्य की चिंता और अतीत की पीड़ा झलकती है।
शायद यही शिक्षा व्यवस्था की सबसे बड़ी त्रासदी है—
जहाँ शिक्षक को शिक्षक कम, ‘सेल्स एजेंट’ अधिक बनना पड़ता है।
जहाँ शिक्षा का मंदिर एक बाज़ार हो गया है, और गुरु— एक विक्रेता।
शब्दांत में—
“शिक्षा का उद्देश्य बालक को ज्ञान देना था,
आज वह उद्देश्य शिक्षक से गरिमा लेना हो गया है।
जब शिक्षक दरवाज़े पर खड़ा हो—
तो समझो, शिक्षा स्वयं द्वारहीन हो चुकी है।”