चूड़ियाँ
अमरेश सिंह भदौरिया
चूड़ियाँ—
केवल काँच की खनक नहीं,
एक गहना नहीं,
बल्कि एक जीवित धारा हैं,
जो हर हरकत में
महकती हैं, गूँजती हैं,
याद दिलाती हैं
उस प्रेम का,
जो कहीं भीतर
चुपके से बस गया है।
पहनने पर नहीं लगता
कि ये सिर्फ़ आभूषण हैं,
हर खनक में
एक कहानी छिपी होती है—
सपनों की, संघर्ष की,
संस्कारों की और इच्छाओं की।
चूड़ियाँ—
हर उँगली में बँधे अहसास की आवाज़,
हर खनक में गूँजती
चुप सी एक गाथा।
इन्हें पहने बिना
क्या कोई औरत
सचमुच पूरी हो सकती है?
रातों को जब चाँद
चुपके से छत से
दूर तक अपनी रौशनी फैला देता है,
तो ये चूड़ियाँ भी
संगीन ख़्वाबों की तरह
सपनों में रंग भर देती हैं।
सपने—
जिनमें दफ़न होती हैं
उम्मीदें, डर और इच्छाएँ।
कभी चूड़ी की आवाज़
गाँव की मिट्टी में मिलती है,
तो कभी शहर के गलियों में,
हर क़दम, हर रास्ता
इनकी ध्वनियों से जुड़ा होता है,
सिर्फ़ एक चुप्पी के साथ
जो कभी किसी ने नहीं सुनी।
चूड़ियाँ—
हर टूटे हुए पल में
हमें याद दिलाती हैं
कि यह दुनिया केवल काँच से बनी नहीं,
बल्कि मन के उन हिस्सों से बनी है
जो टूटकर भी
सुर और समृद्धि का गूढ़ संदेश देते हैं।
चूड़ियाँ—
न सिर्फ़ ध्वनि हैं,
बल्कि वे हमारे अस्तित्व का
संकेत हैं,
एक बेतहाशा भागते हुए समाज में
वह राग, जो हमें
शांत और सजीव बनाये रखता है।
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