आज वाल्मीकि की याद आई

15-10-2025

आज वाल्मीकि की याद आई

अमरेश सिंह भदौरिया (अंक: 286, अक्टूबर द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)

 

आज सुबह
जब खिड़की से रोशनी भीतर आई, 
तो जाने क्यों मन बहुत शांत था। 
रेडियो पर सुना— आज वाल्मीकि जयंती है। 
क्षणभर को लगा, जैसे कोई पुरानी बात
अचानक भीतर जाग उठी। 
 
मैंने सोचा—
कितना विलक्षण होगा वह क्षण, 
जब किसी पक्षी के करुण स्वर ने
एक मनुष्य को कवि बना दिया। 
दुख ही शायद सबसे बड़ा शिक्षक होता है। 
 
वाल्मीकि ने सिखाया, 
कि ग़लती करने वाला भी
प्रकाश पा सकता है, 
अगर उसके भीतर
थोड़ी-सी पश्चात्ताप की आग बची हो, 
और किसी की पीड़ा सुनने की क्षमता। 
 
कभी-कभी लगता है, 
कविता भी कोई तपस्या है—
जिसे केवल वे लिख सकते हैं
जो जीवन को महसूस करते हैं, 
केवल देखते नहीं। 
 
आज जब मैंने क़लम उठाई, 
तो ऐसा लगा, 
मानो तुम ही मेरे भीतर हो, 
जो हर शब्द से पहले पूछते हो—
“क्या यह सत्य है?” 
 
हे वाल्मीकि, 
तुम केवल आदिकवि नहीं, 
एक दिशा हो—
जो दिखाती है कि
अंधकार में भी
प्रकाश की शुरूआत हो सकती है। 
 
आज तुम्हारी जयंती पर
मैं प्रणाम करता हूँ—
कवि को नहीं, 
उस मनुष्य को
जिसने करुणा को धर्म बना दिया। 

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

सामाजिक आलेख
कविता
किशोर साहित्य कविता
हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
सांस्कृतिक आलेख
साहित्यिक आलेख
कहानी
लघुकथा
चिन्तन
सांस्कृतिक कथा
ऐतिहासिक
ललित निबन्ध
शोध निबन्ध
ललित कला
पुस्तक समीक्षा
कविता-मुक्तक
हास्य-व्यंग्य कविता
गीत-नवगीत
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में