कृतज्ञता का पर्व पितृपक्ष
अमरेश सिंह भदौरिया
भारतीय संस्कृति विविध धार्मिक अनुष्ठानों, पर्व-त्योहारों और परंपराओं से समृद्ध रही है। यहाँ पर्व केवल मनोरंजन और हर्षोल्लास के प्रतीक नहीं, बल्कि जीवन-दर्शन, कृतज्ञता, स्मृति और आत्मशुद्धि के अवसर भी प्रदान करते हैं। इन्हीं में से एक है पितृपक्ष अथवा श्राद्ध पक्ष, जिसे सामान्यतः ‘तर्पण पक्ष’ भी कहा जाता है। आश्विन मास के कृष्णपक्ष की पंद्रह तिथियों को यह विशेष महत्त्व दिया जाता है। इस अवधि में अपने पितरों को स्मरण करते हुए श्राद्ध, तर्पण, पिंडदान और दान जैसे अनुष्ठान किए जाते हैं।
‘श्राद्ध’ शब्द की उत्पत्ति ‘श्रद्धा’ से हुई है। इसका अर्थ है श्रद्धा और आस्था के साथ पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता प्रकट करना। शास्त्रों में वर्णित है कि बिना श्रद्धा के किया गया कोई भी कर्म निष्फल होता है, जबकि श्रद्धापूर्वक किया गया लघु से लघु कार्य भी महान फलदायी होता है। इसी कारण यह पर्व केवल कर्मकांड मात्र नहीं, बल्कि आंतरिक भाव और श्रद्धा पर आधारित है।
ऋग्वेद, यजुर्वेद तथा अथर्ववेद में पितरों का उल्लेख मिलता है। गरुड़ पुराण और विष्णु पुराण में श्राद्ध की विधि और महत्त्व का विस्तृत वर्णन है। महाभारत के अनुशासन पर्व में भी श्राद्ध की महिमा का विशेष उल्लेख किया गया है। मान्यता है कि इस पक्ष में किए गए तर्पण से पितृ तृप्त होकर संतानों को आशीर्वाद देते हैं, जिससे घर-परिवार में सुख-समृद्धि बनी रहती है।
मान्यता है कि जब महाभारत के युद्ध में भीष्म पितामह शरशय्या पर लेटे हुए थे, तब उन्होंने युधिष्ठिर को धर्म, नीति और जीवन के विविध सूत्र बताए। उसी समय उन्होंने श्राद्ध के महत्त्व को भी समझाया। इसके अतिरिक्त पुराणों में यह कथा भी आती है कि करताल नामक असुर से मुक्ति दिलाने के लिए राजा करन्दम ने अपने पूर्वजों का श्राद्ध किया, जिससे उन्हें आत्मिक शान्ति मिली।
एक और कथा के अनुसार, जब महर्षि कश्यप के पुत्र करम नामक व्यक्ति ने अपने पूर्वजों को जल अर्पण नहीं किया तो उनके पितृ आत्माएँ व्याकुल हो उठीं। तब उसने तर्पण कर उनकी आत्मा को संतोष दिया। इस प्रकार श्राद्ध पर्व की परंपरा पूर्वजों की आत्मिक तृप्ति और संतानों की कृतज्ञता के प्रतीक रूप में स्थापित हुई।
भारतीय लोकजीवन में पितृपक्ष केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं है, बल्कि यह पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने का सांस्कृतिक उत्सव है। यह हमें यह स्मरण कराता है कि हमारा वर्तमान अस्तित्व हमारे पूर्वजों की मेहनत, संघर्ष और त्याग का परिणाम है। यदि वे हमें संस्कार और परंपराएँ न देते, तो आज का समाज अधूरा रह जाता।
लोककथाओं और ग्रामीण जीवन में पितृपक्ष को विशेष गंभीरता के साथ मनाया जाता है। गाँवों में आज भी श्राद्ध के अवसर पर विशेष पकवान बनाए जाते हैं, ब्राह्मणों और निर्धनों को भोजन कराया जाता है, और परिवारजन मिलकर अपने पितरों का स्मरण करते हैं। यह सामूहिक स्मृति ही भारतीय जीवन की सबसे बड़ी शक्ति है।
श्राद्ध पर्व में तर्पण, पिंडदान और दान को विशेष महत्त्व दिया गया है।
तर्पण–जल में तिल और कुश डालकर पितरों के नाम से अर्पण किया जाता है। इसे आत्मा की प्यास बुझाने और शान्ति देने का प्रतीक माना जाता है।
पिंडदान–चावल, जौ, तिल, आटा आदि मिलाकर पिंड बनाए जाते हैं और उन्हें पितरों को अर्पित किया जाता है। यह उनके प्रति आहार और तृप्ति का प्रतीक है।
दान और सत्कार–इस कालखंड में ब्राह्मणों तथा निर्धनों को भोजन कराने और दान देने की परंपरा रही है। यह सामाजिक समानता और सेवा-भाव का संदेश देता है।
मान्यता है कि इन अनुष्ठानों के माध्यम से पितृलोक और पृथ्वीलोक के बीच अदृश्य सेतु बनता है, जिससे पितरों को तृप्ति और जीवितों को आशीर्वाद प्राप्त होता है।
यदि गहराई से देखा जाए तो पितृपक्ष केवल धार्मिक आस्था तक सीमित नहीं है। यह पर्व हमें यह शिक्षा देता है कि मनुष्य का अस्तित्व केवल स्वयं का नहीं, बल्कि पूर्वजों और आने वाली पीढ़ियों का भी है। पितरों का स्मरण हमें यह सिखाता है कि हम उनकी परंपराओं, संस्कारों और मूल्यों को आगे बढ़ाएँ।
श्राद्ध का अर्थ केवल पिंडदान नहीं, बल्कि आत्मा की शुद्धि और मन की कृतज्ञता है। यह पर्व हमें विनम्र बनाता है और याद दिलाता है कि जीवन की चकाचौंध में भी हमें अपनी जड़ों और आधार को नहीं भूलना चाहिए।
आज के समय में जब लोग व्यस्त जीवन जी रहे हैं और भौतिकता की दौड़ में उलझे हैं, पितृपक्ष हमें ठहरकर अपनी परंपरा और संस्कारों को याद करने का अवसर देता है। शहरी जीवन में भले ही श्राद्ध पर्व औपचारिक रूप से सीमित हो गया हो, लेकिन ग्रामीण समाज में आज भी इसकी गहनता और गंभीरता दिखाई देती है।
आधुनिक दृष्टि से देखा जाए तो पितृपक्ष का सबसे बड़ा संदेश है—कृतज्ञता। अपने माता-पिता, दादा-दादी और उन सभी पूर्वजों का स्मरण करना जिन्होंने हमें जीवन दिया और संस्कार दिए। यह पर्व केवल मृतकों की आत्मा की शान्ति का साधन नहीं, बल्कि जीवित मनुष्यों में भी संवेदनाओं और मानवीयता का संचार करता है। तर्पण पक्ष (श्राद्ध पर्व) भारतीय जीवन का एक ऐसा अध्याय है, जिसमें धर्म, दर्शन, संस्कृति और मानवीय मूल्यों का सुंदर संगम दिखाई देता है। यह पर्व हमें अपने पूर्वजों के प्रति श्रद्धा प्रकट करने, कृतज्ञता व्यक्त करने और उनके दिए हुए संस्कारों को आगे बढ़ाने की प्रेरणा देता है।
आज आवश्यकता इस बात की है कि हम इस पर्व को केवल कर्मकांड तक सीमित न रखें, बल्कि इसके भीतर छिपे मानवीय और सामाजिक संदेश को आत्मसात करें। अपने पूर्वजों के प्रति श्रद्धा का भाव जीवित रखकर ही हम अपने वर्तमान को सुदृढ़ और भविष्य को उज्ज्वल बना सकते हैं। यही इस पर्व का शाश्वत संदेश है।
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