मन मरुस्थल

01-07-2025

मन मरुस्थल

अमरेश सिंह भदौरिया (अंक: 280, जुलाई प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

भीतर कहीं
एक मरुस्थल है—
जहाँ
ना कोई हरियाली उगती है, 
ना बादल रुकते हैं
भावनाओं के आकाश में। 
 
प्यास केवल जल की नहीं होती, 
कभी-कभी
एक स्पर्श, 
एक संवाद, 
एक साँस की साझेदारी
भी जीवन दे सकती है। 
 
पर यहाँ—
हर रिश्ते ने
रेत के कणों-सा
छल किया है, 
हर स्मृति
रेत के तूफ़ान-सी
आँखें भर देती है। 
 
मन खोजता है
कोई नख़लिस्तान—
जहाँ विश्राम हो, 
जहाँ कोई
थोड़ा-सा समझ सके
इस सूखेपन को। 
 
किन्तु मरुस्थलों में
पाँव के निशान भी
जल्द मिट जाते हैं, 
और मन—
फिर से अकेला
अपनी ही गूँज में
भटकता है। 

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