भगीरथ संकल्प

15-05-2025

भगीरथ संकल्प

अमरेश सिंह भदौरिया (अंक: 277, मई द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)

 

सूख चुकी थी पृथ्वी की देह, 
नदियाँ बस नाम रह गई थीं, 
बादल—
जैसे किसी निर्वासित गाथा के भटके हुए अक्षर। 
 
धरती की छाती पर
दरारें थीं, 
भूख के नक़्शे थे, 
प्यास की चीखें थीं। 
 
तब . . . 
एक अकेला उठा—
नंगे पाँव, धूप से झुलसा, 
अग्निपथ रचता हुआ! 
 
उसने समय के देवताओं को नहीं मनाया, 
न द्रवित किया किसी युग के भाग्य को, 
बस अपने कंधों पर उठा लिया
एक पूरे ब्रह्मांड का बोझ। 
 
छेनी-हथौड़ी से नहीं, 
अपने हठ से, अपने अश्रु से, 
पर्वत की छाती को चीर डाला, 
और धरती को दिया—
जल, जीवन, गति। 
 
भगीरथ था वह—
न किसी मंदिर में पूजित, 
न किसी कथा में अलंकृत, 
बस मिट्टी से उठकर
मिट्टी के लिए जिया। 
 
आज भी जब धरती रोती है, 
आकाश थमता है, 
तो एक भगीरथ
चुपचाप जन्म लेता है—
अपने भीतर
संपूर्ण सृष्टि को संचालित कर देने के संकल्प के साथ। 

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