योगेश्वर श्रीकृष्ण अवतरणाष्टमी
अमरेश सिंह भदौरिया
(कर्म और प्रेम का संदेश)
भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को जब-जब श्रीकृष्ण जन्माष्टमी का पर्व आता है, तब-तब मेरे मन में यह भाव जगता है कि यह केवल एक धार्मिक परंपरा नहीं, बल्कि जीवन दर्शन को आत्मसात करने का अवसर है। बचपन में जब गाँव या शहर के मंदिरों में झाँकियाँ सजती थीं, कान्हा की झूलनियाँ तैयार होती थीं, और आधी रात को घड़ियाल व घंटियों की गूँज सुनाई देती थी, तब यह पर्व एक उत्सव और आनंद का रूप लिए रहता था। हम सब माखनचोर नन्हे कान्हा की कहानियाँ सुनते, मिट्टी के खिलौनों और रंग-बिरंगी रोशनी से सजे पंडाल देखते और अपने-अपने घरों में उपवास और भजन-कीर्तन करते थे। पर जैसे-जैसे जीवन आगे बढ़ता है, वैसे-वैसे यह एहसास गहरा होता गया कि श्रीकृष्ण केवल कथाओं और झाँकियों के पात्र नहीं हैं, बल्कि वे जीवन के प्रत्येक आयाम में उपस्थित एक जीवंत प्रेरणा हैं। उनका बचपन सादगी और चंचलता का प्रतीक है, उनकी युवावस्था प्रेम और सौंदर्य का, और उनकी गीता का उपदेश जीवन के संघर्षों से जूझने का अमर संदेश है। जन्माष्टमी का पर्व इसीलिए केवल पूजन का अवसर नहीं, बल्कि आत्ममंथन का समय भी है—जहाँ हम अपने जीवन को श्रीकृष्ण के आदर्शों से जोड़ने का प्रयास करते हैं।
मथुरा की उस अँधेरी कारागार में श्रीकृष्ण का जन्म हमें यह सिखाता है कि कठिन परिस्थितियाँ कभी जीवन का अंत नहीं होतीं, बल्कि उन्हीं अँधेरों से नए उजाले जन्म लेते हैं। यह प्रसंग हर बार मेरे मन में यह विश्वास जगाता है कि विपत्ति चाहे कितनी भी गहरी क्यों न हो, ईश्वर की कृपा और आत्मविश्वास से उसका पार पाया जा सकता है। ग्वाल-बालों के बीच बिताया गया उनका बचपन मुझे सदा सादगी और लोकजीवन से जुड़ाव की याद दिलाता है। गोपियों और ग्वालों के साथ हँसी-ठिठोली, बाँसुरी की मधुर तान और वृंदावन की गलियों में उनकी चंचल लीलाएँ—यह सब लोकसंस्कृति और मानवीय स्नेह का जीवंत प्रतीक हैं। गोवर्धन पर्वत उठाने की कथा तो आज भी मेरे हृदय को छू जाती है। यह केवल एक चमत्कारी घटना नहीं, बल्कि यह संदेश है कि जब समाज संकट के समय एकजुट होता है, तो सबसे बड़ी आपदाएँ भी टल जाती हैं। उस प्रसंग को सोचते ही मेरे मन में यह भाव उमड़ता है कि सामूहिक शक्ति ही सच्चे धर्म और समाज की रक्षा करती है। माखनचोर की उनकी चंचलता मुझे बार-बार यह स्मरण कराती है कि जीवन केवल नियमों और गंभीरताओं में बाँध देने का नाम नहीं है। छोटे-छोटे उल्लास, बच्चों-सी शरारतें और सहज हँसी भी उतनी ही आवश्यक हैं, जितनी कि ज़िम्मेदारियाँ और कर्त्तव्य। जब मैं उनके बाल रूप की कथाएँ सुनता हूँ—माखन की मटकी फोड़ते हुए, गोपियों के घरों में छुप-छुपकर दौड़ते हुए—तो लगता है जैसे वे हमें यह सिखाना चाहते हैं कि आनंद के बिना जीवन नीरस हो जाता है।
राधा और गोपियों के साथ उनका प्रेम भी सांसारिक मोह-माया से कहीं ऊँचा और पवित्र दिखाई देता है। यह केवल किसी युवक-युवती का आकर्षण नहीं, बल्कि आत्मा और परमात्मा के मिलन की प्रतीक भावना है। जब वृंदावन की गलियों में रास रचता है, तो वह हमें यह संदेश देता है कि प्रेम केवल पाने का नाम नहीं, बल्कि समर्पण और आत्मविस्मृति का भी एक गहन अनुभव है। इसलिए श्रीकृष्ण का व्यक्तित्व मुझे यह याद दिलाता है कि जीवन का संतुलन तभी पूर्ण है जब उसमें गंभीरता के साथ-साथ उल्लास और आत्मीयता भी बनी रहे। जब मैं भगवद्गीता पढ़ता हूँ, तो सचमुच ऐसा प्रतीत होता है मानो श्रीकृष्ण केवल अर्जुन से नहीं, बल्कि हम सब से सीधे संवाद कर रहे हों। उनके शब्द समय और परिस्थिति की सीमाओं से परे जाकर प्रत्येक मनुष्य के हृदय में उतरते हैं। “कर्म पर अधिकार है, फल पर नहीं”—यह वाक्य मेरे जीवन का एक स्थायी संबल बन गया है। जब कभी किसी कार्य के परिणाम की चिंता मुझे विचलित करती है, तब गीता की यह शिक्षा मुझे स्थिर कर देती है कि हमें केवल अपने कर्त्तव्य का निष्ठापूर्वक पालन करना है, परिणाम अपने आप ईश्वर पर छोड़ देना है। कुरुक्षेत्र का वह प्रसंग भी मेरे मन को हमेशा गहराई से छूता है। जब अर्जुन अपने ही बंधु-बांधवों के विरुद्ध युद्ध के विचार से भय और मोह में डगमगाने लगे, तब श्रीकृष्ण ने उन्हें केवल युद्ध का ही नहीं, बल्कि जीवन का शाश्वत संदेश दिया। कठिन परिस्थितियों में सही मार्गदर्शन कितना आवश्यक होता है, यह दृश्य हमें बार-बार स्मरण कराता है। मुझे लगता है, हम सबके जीवन में भी कभी न कभी एक “कुरुक्षेत्र” आता है—जहाँ हमें निर्णय लेना होता है, जहाँ मोह और कर्त्तव्य आमने-सामने खड़े होते हैं। और तब गीता का यह संदेश प्रकाशस्तंभ बनकर हमारे मार्ग को आलोकित करता है।
आज जब हम समाज में नैतिकता का क्षरण, राजनीति में स्वार्थ और व्यक्तिगत संबंधों में दिखावटीपन देखते हैं, तब श्रीकृष्ण का जीवन और भी प्रासंगिक प्रतीत होता है। मुझे लगता है, जैसे वे आज भी हमारे बीच होते तो शायद यही कहते कि “संकट चाहे जितना भी गहरा हो, पर विवेक और साहस कभी नहीं छोड़ना चाहिए।” उनकी कूटनीति हमें यह सिखाती है कि किसी भी समस्या का समाधान केवल बल प्रयोग से नहीं, बल्कि सही समय पर सही निर्णय लेकर किया जा सकता है। श्रीकृष्ण ने महाभारत के प्रसंगों में यह सिद्ध कर दिखाया कि धर्म की रक्षा के लिए कभी कठोर निर्णय भी लेने पड़ते हैं, परन्तु उन निर्णयों में न्याय और संतुलन का भाव होना चाहिए। यही कारण है कि वे न केवल धर्म के संरक्षक बने, बल्कि समाज और राजनीति को एक साथ साधने वाले अद्वितीय आदर्श भी बने। आज के दौर में, जब समाज अलग-अलग ध्रुवों में बँटता दिखाई देता है, मुझे श्रीकृष्ण का यह समन्वयवादी दृष्टिकोण सबसे अधिक प्रेरक लगता है। धर्म, समाज और राजनीति के बीच उन्होंने जो संतुलन स्थापित किया, वही हमें यह सिखाता है कि मतभेदों के बावजूद हम संवाद, सहिष्णुता और सहयोग की भावना से साथ रह सकते हैं। यही दृष्टि वर्तमान समय के लिए सबसे बड़ी आवश्यकता है।
जन्माष्टमी का पर्व मेरे लिए केवल उपवास और पूजा का दिन नहीं है, बल्कि आत्मचिंतन और आत्मशोधन का अवसर भी है। इस दिन जब आधी रात को मंदिरों की घंटियाँ गूँजती हैं, झाँकियों में नन्हे कान्हा की झूलनियाँ सजती हैं और घर-घर भजन-कीर्तन होते हैं, तो मेरे भीतर यह भाव उठता है कि यह सब बाहरी आडंबर मात्र नहीं है, बल्कि हमें अपने भीतर बसे उस ‘कृष्ण’ को पहचानने का निमंत्रण है। यह पर्व मुझे बार-बार स्मरण कराता है कि श्रीकृष्ण की सच्ची आराधना केवल उनकी मूर्तियों के आगे दीप जलाने में नहीं, बल्कि उनके आदर्शों को जीवन में उतारने में है। प्रेम, सत्य, साहस और कर्मनिष्ठा—यदि इन चारों को हम अपने आचरण का हिस्सा बना लें, तो यही सबसे बड़ा पूजा-पाठ होगा। कृष्ण का जीवन हमें यह विश्वास दिलाता है कि एक अकेला मनुष्य भी साहस और विवेक के बल पर समाज की धारा बदल सकता है। मैं अक्सर सोचता हूँ, यदि हम सब श्रीकृष्ण के उपदेशों और जीवन-दृष्टि का थोड़ा-थोड़ा अंश भी अपने भीतर उतार लें, तो न केवल हमारा व्यक्तिगत जीवन बदल जाएगा, बल्कि पूरा समाज नई दिशा पा लेगा। जिस प्रकार गोवर्धन उठाने में ग्वाल-बालों ने एक होकर संकट को टाला था, उसी प्रकार यदि हम सब मिलकर कृष्ण के आदर्शों पर चलें तो अन्याय, असमानता और विभाजन की दीवारें ढह सकती हैं।
इसलिए जन्माष्टमी मेरे लिए केवल एक उत्सव नहीं, बल्कि यह जीवन भर के लिए प्रेरणा का दिन है—एक ऐसा अवसर, जब हम यह संकल्प लें कि अपने छोटे-छोटे कर्मों से भी समाज में प्रकाश फैलाएँगे। यही श्रीकृष्ण के आदर्शों को सच्चा सम्मान होगा और यही हमारे जीवन की सबसे बड़ी साधना।
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