मनीप्लांट

01-09-2025

मनीप्लांट

अमरेश सिंह भदौरिया (अंक: 283, सितम्बर प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

वो नहीं छाता दीवारों पर,
न दिखता है आँगन के बीचों-बीच,
बस किसी कोने में
धीरे-धीरे चढ़ता रहता है—
जैसे कोई पुरुष,
जो रोज़ थकता है,
पर कहता कुछ नहीं।
 
मनीप्लांट की तरह
वो भी रोशनी नहीं माँगता,
सिर्फ़ थोड़ी-सी नमी चाहिए—
एक विश्वास,
कि जो कर रहा है,
उसकी कोई क़ीमत है।
 
काँच की बोतल में जड़ें जमाकर
वो सब थाम लेता है—
घर की दरकती दीवारें,
बिखरती प्राथमिकताएँ,
और बच्चों के बीच
अपना नाम तक खो बैठता है।
 
वो बेल की तरह
सजावटी नहीं होता,
पर जब वो न हो—
घर सूना लगता है।
 
वो न शिकायत करता है,
न श्रेय लेता है—
बस हर रोज़
अपना सिर झुकाकर
दीवार से सटा रहता है,
ताकि घर की ख़ूबसूरती बनी रहे।
 
मनीप्लांट की सबसे बड़ी कला यही है—
वो साथ देता है,
सहारा देता है,
पर कभी आगे नहीं आता।
 
ऐसे ही होते हैं वो पुरुष,
जो घर की हर चीज़ को थामे रखते हैं,
बिना कभी ख़ुद को दिखाए।

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