आरक्षण की बैसाखी
अमरेश सिंह भदौरिया
चल पड़ा था जीवन की दौड़ में
अपनी हड्डियों के दम पर।
न जाति की बैसाखी थी,
न सत्ता का तिलक।
बस माँ की रोटियाँ थीं,
और पिता की आँखों की उम्मीद।
पर भैया,
जब मेरिट से पहुँचा द्वार तक,
तो कह दिया गया—
“पंक्ति में खड़े रहने का
अधिकार तुम्हें नहीं,
क्योंकि तुम्हारा नाम
इतिहास के घावों में दर्ज नहीं।”
मैं चुप रहा।
कहीं कोई ‘संविधान’ मेरी बात नहीं कहता,
कहीं कोई ‘बाबा’ मेरे लिए संघर्ष नहीं करता।
मेरे हिस्से का सूरज
हर बार कोटे के बादल छीन ले जाते हैं।
हास्यास्पद है यह—
कि मुझसे कहा जाता है—
“तू आभिजात्य है, तुझे क्या कष्ट!”
जबकि मेरी जेब में तो
कभी पूरी किताब ख़रीदने के पैसे भी नहीं होते।
पर जिनके पास
दादी के खेत,
पिता की कुर्सी,
और माँ का शहर भर का नेटवर्क है,
वे ‘पिछड़े’ कहलाते हैं—
और मैं— ‘सुविधा संपन्न भोगी’।
कभी-कभी लगता है,
कि मैं योग्यता का अपराधी हूँ।
मेरी प्रतिभा पर
आरक्षण का कोड़ा पड़ता है,
और मैं हर बार
‘सामाजिक न्याय’ के नाम पर
पीछे ढकेल दिया जाता हूँ।
कितना अजीब है,
एक देश में—
जहाँ भीख माँगना अपराध है,
वहाँ कोटा माँगना अधिकार है।