शस्त्र पूजन और बेलन-चिमटा
अमरेश सिंह भदौरिया
दशहरा आया, शस्त्र पूजन का दिन। लोग अपने-अपने “शस्त्रों” को चमकाकर फूल-माला चढ़ा रहे हैं। कोई तलवार साफ़ कर रहा है, कोई बंदूक, तो कोई लाठी-भाला। लेकिन महल्ले के कोने में बैठी दो महिलाएँ—सुनयना और कमला—बड़ी गम्भीर मुद्रा में चर्चा कर रही थीं।
सुनयना (व्यंग्य भरे स्वर में)— “कमला बहन, बड़े लोग तलवार, बंदूक पूज रहे हैं। सोचो ज़रा, इनसे उनका क्या होता है? साल भर अलमारी में बंद पड़ी रहती हैं। असली शस्त्र तो हमारे हाथों में हैं।”
कमला (हँसते हुए)— “बिलकुल! हमारे बेलन-चिमटे बिना तो घर आधे दिन भी न चले। बेलन ही है जो सुबह चार रोटियाँ बेलता है और ज़रूरत पड़ने पर पति की अकड़ भी बेलकर चपटी कर देता है।”
सुनयना (ठहाका लगाकर)— “और चिमटा! ये तो बहनों का ब्रह्मास्त्र है। रोटी पलटे तो भी काम आए और पति की बातें पलटे तो भी।”
कमला (मुस्कराकर)— “हाँ बहन, अब बैंक वाले अपने कंप्यूटर की पूजा करें, मज़दूर हथौड़ी-हंसिया की। पर हम गृहिणियों का क्या? हमारा कंप्यूटर है कुकर—एक सीटी ग़लत बजी तो घर में महाभारत शुरू।”
सुनयना— “सही कहा! और झाड़ू को मत भूलो। ये तो बहुउपयोगी शस्त्र है। घर की गंदगी साफ़ करे और कभी-कभी गली के कुत्ते-बिल्ली ही नहीं, पति की अकड़ भी साफ़ कर दे।”
दोनों और ज़ोर से हँस पड़ीं।
कमला— “तो तय रहा। इस दशहरे हम बेलन, चिमटा, कुकर और झाड़ू का पूजन करेंगे। तलवार-बंदूक की ज़रूरत उन लोगों को है जिन्हें दिखावा करना है। हमें तो वही पूजना चाहिए जिससे पेट भरता है, घर चलता है और कभी-कभी पति भी सीधा होता है।”
सुनयना (व्यंग्य कसते हुए)— “हाँ, बहन। जो शस्त्र 365 दिन हमारे हाथों में रहते हैं, वही असली शस्त्र हैं। बाक़ी तो बस फोटो खिंचवाने के लिए होते हैं।”
और दोनों हँसते-हँसते इस नतीजे पर पहुँचीं कि—
इस देश में अगर सबसे ईमानदारी से शस्त्र पूजन होता है, तो वह गृहिणियों के बेलन और चिमटे का ही होता है।
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