अभिशप्त अहिल्या

01-10-2025

अभिशप्त अहिल्या

अमरेश सिंह भदौरिया (अंक: 285, अक्टूबर प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

मैं अहिल्या हूँ—
पत्थर नहीं, 
भावनाओं की समाधि हूँ। 
जिसे इतिहास ने
सिर्फ़ शाप की छाया में देखा, 
पर कभी उसके भीतर के सूर्य को नहीं समझा। 
 
देवता आया छल से, 
ऋषि ने शाप दिया क्रोध से, 
और मैं, 
मैं बस सुनती रही—
बिना अपनी बात रखे
सदियों तक सज़ा काटती रही। 
 
कौन था मेरा दोष? 
क्या सिर्फ़ स्त्री होना? 
या देवता की वासना पर
मौन रह जाना? 
 
राम ने छुआ, 
और मैं फिर जीवित हुई, 
पर क्या सचमुच? 
या फिर किसी नई मर्यादा की
दीवारों में क़ैद कर दी गई? 
 
आज भी देखती हूँ—
अहिल्याएँ हर गली में हैं, 
कभी बॉस के केबिन में, 
कभी पंचायत की चौखट पर, 
कभी घर की चारदीवारी में
अपने ही अस्तित्व से कटती हुई। 
 
मैं अब पूजा नहीं चाहती, 
न उद्धार . . . 
मुझे चाहिए मेरा नाम, 
मेरा सत्य, 
मेरा स्वत्व। 
 
मैं पत्थर नहीं, 
मैं प्रश्न हूँ, 
जवाब माँगती
अहिल्या हूँ। 

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