आँगन

अमरेश सिंह भदौरिया (अंक: 281, जुलाई द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)

 

घर की छत से ज़्यादा
मुझे याद है वो आँगन, 
जहाँ न दिन था, न रात, 
बस जीवन था—खुला, बेलौस। 
 
वहीं से शुरू होती थी
हर सुबह की पहली पुकार—
“जग जा बेटा, भोर हो गई!”
और वहीं बैठ कर
दादी सुनाती थीं
रूपकथाएँ और लोकगीत। 
 
आँगन में तुलसी का चौरा था, 
जो किसी मंदिर से कम नहीं। 
और वो खटिया, 
जिस पर बैठ
पिता रात के तारों से
सपनों की दिशा पूछते थे। 
 
वहीं खेलते-झगड़ते
भाई-बहन बड़े हो गए, 
और वहीं
बरसों बाद
बिदाई में कोई आँचल भी भीग गया। 
 
अब फ़्लैट है, 
बालकनी है, 
पर आँगन नहीं है। 
 
जहाँ मिट्टी थी, 
वहाँ मार्बल है। 
जहाँ रिश्ते थे, 
अब बस नेटवर्क है। 
 
आँगन वो जगह थी
 
जहाँ घर “घर” लगता था, 
अब बस चारदीवारी है—
साफ़, सुंदर, लेकिन ख़ाली। 
 
आँगन मिट गया है, 
पर मन अब भी
उसी कोने में बैठा है—
जहाँ कभी घर साँस लेता था। 

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