अमरेश सिंह भदौरिया - मुक्तक - 004
अमरेश सिंह भदौरिया1.
चंद सपने और कुछ ख़्वाहिशें हैं आसपास।
दूर ले जाती है मुझको आबो दाने की तलाश।
तन्हाई, चिंता, घुटन, बेबसी, मज़बूरियाँ,
बदलती हैं रोज़ अपने-अपने ढ़ंग से लिबास।
2.
वक़्त बीते की कहानी कौन लिखता है।
आजकल बातें पुरानी कौन लिखता है।
चाँदनी ही रही हरदम चर्चा में यहाँ,
स्याह रातों की कहानी कौन लिखता है।
3.
कभी क़िस्से में मिलती है
कभी मिलती कहानी में।
सुखद अहसास-सी है वो
महकती रातरानी में।
करूँ तारीफ़ भी कितनी
भला उसके हुनर की मैं,
मधुर-मुस्कान-से अपनी
वह लगाती आग पानी में।
4.
किसी की सुबह अच्छी है,
किसी की शाम अच्छी है।
जोड़ दे टूटे दिल को जो,
वो राम-राम अच्छी है।
दुआ के वास्ते जिसमें
हज़ारों हाथ उठते हों,
बस वही प्रार्थना अच्छी
वही अज़ान अच्छी है।
5.
नगद चाहिए, न उधार चाहिए।
आदमी को आदमी का प्यार चाहिए।
दिल-से मिलें, और दिल भी मिले,
रिश्तों में मधुर व्यवहार चाहिए।
6.
किसी को हार मिली यहाँ
किसी के हिस्से जीत रही।
वसुधैव कुटुंबकम की
जहाँ सनातन रीति रही।
ज़िंदगी का फ़लसफ़ा यूँ
आजकल उलझा हुआ है,
कलह से होती सुबह और
शाम सुलह में बीत रही।
7.
भाई के हित भाई का समर्पण हमें वो चाहिए।
दुश्वारियों में साथ दे जो लक्ष्मण हमें वो चाहिए।
सिर्फ़ चेहरे पढ़ लेना ही शायद नही बाज़ीगरी,
नियति को भी पढ़ सके जो दर्पण हमें वो चाहिए।
8.
ज़मीं है अपनी आसमाँ है अपना।
कहने को सारा जहाँ है अपना।
समझने जाती है दृष्टि दूर तक,
नज़दीक कौन यहाँ है अपना।
9.
संकल्प सृजन का लेकर
क़लम सिपाही चलता है।
अपने मज़बूत इरादों से
हर परिदृश्य बदलता है।
घोर अमावस में काली
रातों की स्याही छँटती है,
जहाँ में तब कहीं दीप
दीवाली का जलता है।
10.
परदे की परिभाषा देखो।
सब कुछ यहाँ ख़ुलासा देखो।
अधिक चाहिए अगर तुम्हें कुछ,
ख़ुद घर फूँक तमाशा देखो।
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