अनंत पथ

15-10-2025

अनंत पथ

अमरेश सिंह भदौरिया (अंक: 286, अक्टूबर द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)

 

चल पड़ा हूँ—
एक ऐसे रास्ते पर
जहाँ कोई मंज़िल नहीं, 
बस कुछ दिशाएँ हैं
जो अपने आप बदलती रहती हैं। 
 
कभी लगता है—
यहीं रुक जाऊँ, 
पर भीतर कुछ है
जो कहता है— “अभी नहीं।” 
 
हर मोड़ पर
मैं अपने ही कुछ टुकड़ों से मिलता हूँ—
कभी हारा हुआ, 
कभी थोड़ा आश्वस्त, 
कभी बस ख़ाली। 
 
पाँव के नीचे ज़मीन है, 
पर मन में एक आकाश भी, 
और दोनों के बीच
मैं रोज़ बनाता हूँ
एक पुल—
विश्वास का, 
थोड़ी थकान का, 
और कुछ अधूरे सपनों का। 
 
कभी कोई दीपक-सा विचार
दूर जल उठता है, 
और मैं फिर चल पड़ता हूँ—
बिना यह जाने
कि उस रोशनी के पार
क्या सचमुच कुछ है, 
या बस छलावा। 
 
जीवन शायद
मंज़िल तक पहुँचने की यात्रा नहीं, 
बल्कि चलते रहने की आदत है, 
एक संवाद—
अपने भीतर के शोर से, 
और उस निस्तब्ध सत्ता से
जो हर अँधेरे के बाद
कोई नयी सुबह रख देती है। 
 
रुकना चाहता हूँ—
पर रुक नहीं पाता, 
क्योंकि ठहराव भी
शायद एक भ्रम ही है, 
जैसे मृत्यु—
जो सिर्फ़ अगला द्वार है
अनंत पथ की ओर खुलता हुआ। 
 
मैं चलता हूँ—
कभी सच में, 
कभी भ्रम में, 
पर चलता हूँ—
क्योंकि शायद
चलना ही मेरा होना है। 

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