कबीर जयंती: भारतीय चेतना के शाश्वत आलोक-स्तंभ
अमरेश सिंह भदौरिया
आज, जब हम कबीर जयंती का पावन पर्व मना रहे हैं, यह केवल एक ऐतिहासिक तिथि का स्मरण नहीं है, बल्कि भारतीय सामाजिक, दार्शनिक और साहित्यिक चेतना के उस अविचल आलोक-स्तंभ का नमन है, जिसने सदियों के अंधकार को भेदकर सत्य, प्रेम और समता का आलोक फैलाया। कबीर केवल एक संत नहीं, बल्कि एक युगद्रष्टा, वैचारिक क्रांति के सूत्रधार और ऐसे जीवन-दर्शन के प्रणेता थे, जिसकी प्रासंगिकता आज भी उतनी ही जीवंत और प्रेरक है, जितनी वह सदियों पहले थी।
कबीर का प्रादुर्भाव 15वीं शताब्दी में हुआ—एक ऐसा कालखंड, जो राजनीतिक अस्थिरता, धार्मिक संकीर्णता और सामाजिक विघटन से ग्रस्त था। तत्कालीन समाज मत-मतांतरों, जातिगत भेदभाव और कर्मकांडों के जटिल जाल में उलझा हुआ था। हिंदू समाज जहाँ मूर्तिपूजा और बाह्य आडंबरों की अति में डूबा था, वहीं इस्लाम भी रूढ़ियों और कर्मकांडों की बेड़ियों में बँधा हुआ था। ऐसे समय में कबीर एक निर्भीक और विद्रोही स्वर बनकर उभरे, जिन्होंने धर्म के इन बाह्य प्रपंचों और सामाजिक असमानताओं को खुली चुनौती दी।
उन्होंने साहसपूर्वक उद्घोष किया कि ईश्वर मंदिर या मस्जिद में नहीं, बल्कि सच्चे साधक के हृदय में निवास करता है। उनकी यह वाणी:
“मोको कहाँ ढूँढ़े रे बंदे, मैं तो तेरे पास में।
ना मैं देवल, ना मैं मस्जिद, ना काबे कैलाश में।”
धार्मिक पाखंड पर सीधा प्रहार करती है और आत्मावलोकन की प्रेरणा देती है।
कविता की लोकधर्मी भाषा और भावभूमि
कबीर की कविता की सबसे बड़ी विशेषता उसकी सहजता, संक्षिप्तता और लोकभाषा में निहित गूढ़ अर्थ है। उन्होंने शास्त्रों के पांडित्य की भाषा, संस्कृत या फ़ारसी, को अस्वीकार करते हुए सधुक्कड़ी और पंचमेल खिचड़ी जैसी जनभाषाओं को अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया। इसीलिए उनके दोहे और पद जनमानस में गहरे पैठे हुए हैं।
उनकी साखियाँ जीवन के गूढ़ सत्यों को अत्यंत प्रभावशाली ढंग से व्यक्त करती हैं। उदाहरण स्वरूप:
“गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काके लागूँ पाय।
बलिहारी गुरु आपने, गोविंद दियो बताय।”
यह दोहा गुरु के आध्यात्मिक महत्त्व को अत्यंत सरल शब्दों में सर्वोपरि स्थान प्रदान करता है।
कबीर के पदों में भक्ति, वैराग्य और लोकजीवन की खुरदरी सच्चाइयाँ गहराई से अभिव्यक्त हैं। उनकी उलटबाँसियाँ, जैसे:
“गाइ को पूत दूध दुहै बाछा बिनु माई”
लौकिक तर्क से परे आध्यात्मिक बोध को चमत्कृत कर देने वाले प्रतीकों और विरोधाभासों के माध्यम से व्यक्त करती हैं। ये उलटबाँसियाँ चिंतन के नए आयाम खोलती हैं।
दर्शन और निर्गुण भक्ति की परंपरा
कबीर का दर्शन मूलतः अद्वैतवाद और निर्गुण भक्ति पर आधारित था। उन्होंने मूर्तिपूजक, साकार ब्रह्म के स्थान पर निर्गुण, निराकार, सर्वव्यापक ईश्वर की उपासना को महत्त्व दिया। उनका ईश्वर किसी विशेष धर्म या संप्रदाय का नहीं था, बल्कि समस्त मानवता का था। वे मानते थे कि सच्चा ईश्वर केवल प्रेम और अंतर्दृष्टि से ही पाया जा सकता है।
उन्होंने जाति-पाँति और कर्मकांड के आधार पर बने भेदभाव का तीव्र विरोध किया। कबीर के शब्द:
“एक बूँद से सब घट उपजा, कौन बामन कौन सूद।”
जातिवाद की जड़ता को हिलाने वाले क्रांतिकारी विचार हैं। उन्होंने कर्म को श्रेष्ठता का आधार माना, जन्म को नहीं।
कबीर: समाज-सुधारक और क्रांतिद्रष्टा
कबीर केवल उपदेशक नहीं, बल्कि सामाजिक क्रांतिदृष्टा और निर्भीक सुधारक थे। उन्होंने धार्मिक पुरोहितों और सामंती मानसिकता वाले समाज की रूढ़ियों पर वाणी से तीखे प्रहार किए। उनका शस्त्र वाणी थी, और शक्ति सत्य। उन्होंने जनमानस को आत्मचिंतन, विवेक के प्रयोग और अंधविश्वासों से मुक्ति के लिए जागरूक किया।
कबीर ने ऐसे समतामूलक समाज की परिकल्पना की जहाँ सभी मनुष्यों को प्रेम, सहिष्णुता और मानवीय गरिमा के आधार पर देखा जाए।
कबीर की प्रासंगिकता: आज भी उतनी ही जीवंत
आज, 21वीं सदी में जब दुनिया पुनः धार्मिक कट्टरता, सामाजिक असमानता और नैतिक अधःपतन से जूझ रही है, कबीर का मार्गदर्शन और भी प्रासंगिक हो जाता है। वे हमें सिखाते हैं कि आडंबर नहीं, आंतरिक शुद्धता, धर्म नहीं, धर्मभाव, और परंपरा नहीं, प्रेम ही वह तत्त्व है, जो मानव को मानव बनाता है।
कबीर जयंती का यह पावन अवसर हमें आत्मचिंतन और आत्मशोधन के लिए प्रेरित करे। हम अपने भीतर की अज्ञानता, अहंकार और असहिष्णुता को त्यागकर कबीर के दिखाए मार्ग पर चलें—इसी में उनकी सच्ची श्रद्धांजलि निहित है।
“ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय”
यह वाणी आज भी हमें उसी तरह झकझोरती है, जैसे कबीर के समय में करती थी।
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