रक्षाबंधन
अमरेश सिंह भदौरिया
बरसात की नमी अभी खेतों से गई नहीं थी। कच्ची गलियों में जगह-जगह पानी के छोटे-छोटे गड्ढे धूप में चमक रहे थे। सावन का आख़िरी सोमवार था, और गाँव में रक्षाबंधन की चर्चा थी। पार्वती, जिसके ससुराल में तंगहाली थी, कई साल से मायके नहीं जा पाई थी। इस बार उसने ठान लिया—चाहे पैदल ही क्यों न जाना पड़े, वह भाई की कलाई पर राखी ज़रूर बाँधेगी। सुबह अँधेरे में ही उसने पुरानी साड़ी का पल्लू सिर पर लिया, हाथ में एक छोटी-सी थाली—जिसमें राखी, चावल, रोली और गुड़ के दो लड्डू थे—और घर से निकल पड़ी। रास्ता लंबा था, पाँच कोस का। पहली पगडंडी के दोनों ओर धान के खेत लहरा रहे थे। ओस की बूँदें पत्तों से टपककर उसकी पैरों को भिगो देतीं। बीच-बीच में पानी से भरे गड्ढों को पार करने के लिए उसे पल्लू सँभालते हुए पाँव ऊँचा करना पड़ता। नदी के छोटे पुल से गुज़रते हुए उसने बहते पानी की ठंडी फुहार अपने चेहरे पर महसूस की—मानो मायके की दहलीज़ क़रीब आ रही हो।
एक मोड़ पर उसने बचपन की सहेली के घर की नीम देखी, तो याद आया—यहीं बैठकर वह और रामू पतंग उड़ाया करते थे। चलते-चलते उसके होंठों पर हल्की मुस्कान आई, फिर आँखें नम हो गईं। गाँव के चौपाल से होते हुए जब वह अपने घर पहुँची, तब तक धूप निकल आई थी। भाई रामू खेत में हल चला रहा था। पसीने और मिट्टी से लथपथ, लेकिन बहन को देख उसकी आँखों में चमक भर आई।
“अरे बहन! तू? इतने साल बाद . . .?” रामू ने हाथ धोए। पार्वती ने उसके माथे पर तिलक किया, राखी बाँधी और भर्राई आवाज़ में कहा, “भइया, तेरी कलाई हमेशा मज़बूत रहे . . . और तेरे जीवन में कभी कोई आँच न आए।”
रामू ने पुरानी कमीज़ की जेब से चालीस रुपये निकाले, “बहन, इस बार बस इतना ही है . . . अगली बार अच्छा दूँगा।”
पार्वती ने रुपये उसकी हथेली में वापस रख दिए, “मुझे तो बस तू सलामत चाहिए, भइया . . . बाक़ी सब ऊपरवाले पर छोड़।”
दोनों की आँखें भीग गईं। उस मिट्टी की ख़ुश्बू और राखी के धागे में, दूरियाँ और सालों का अभाव पिघलकर बह गया। गाँव के उस आँगन में बिना मिठाई, बिना सजावट, सिर्फ़ प्रेम और आँसू से बँधा रिश्ता, सबसे अनमोल हो उठा।
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