रंगमंच: समाज की आत्मा और अभिव्यक्ति का मंच

01-04-2025

रंगमंच: समाज की आत्मा और अभिव्यक्ति का मंच

अमरेश सिंह भदौरिया (अंक: 274, अप्रैल प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

रंगमंच केवल मंच पर अभिनय करने की कला नहीं, बल्कि यह मानव समाज का एक सशक्त दर्पण है। यह व्यक्ति के भीतर छुपे भावों, चिंताओं और आकांक्षाओं को न केवल अभिव्यक्ति देता है, बल्कि समाज को सोचने और बदलने के लिए भी प्रेरित करता है। विश्व रंगमंच दिवस (27 मार्च) इसी सृजनात्मकता और सामाजिक प्रभाव को पहचान देने का एक अवसर है। यह दिवस हमें यह याद दिलाता है कि थिएटर महज़ मनोरंजन नहीं, बल्कि विचारों की अभिव्यक्ति और बदलाव का एक महत्त्वपूर्ण माध्यम है। 

रंगमंच का इतिहास मानव सभ्यता जितना ही पुराना है। ग्रीक, रोमन और भारतीय नाट्य परंपराएँ इसकी समृद्ध विरासत को दर्शाती हैं। भारत में भरतमुनि के ‘नाट्यशास्त्र’ ने रंगमंच की नींव रखी। संस्कृत नाटकों में कालिदास, भवभूति, भास और विष्णुदत्त जैसे महान नाटककारों ने अपनी छाप छोड़ी। मध्यकाल में भक्ति आंदोलन के दौरान रामलीला, कृष्णलीला, नौटंकी और कथकली जैसी लोक नाट्य शैलियाँ लोकप्रिय हुईं। 

आधुनिक युग में भारत में गिरीश कर्नाड, विजय तेंदुलकर, हबीब तनवीर, बादल सरकार और मोहन राकेश जैसे नाटककारों ने थिएटर को नई दिशा दी। ‘अंधा युग’, ‘तुगलक’, ‘आधे-अधूरे’, ‘सखाराम बाइंडर’ जैसे नाटक सामाजिक और राजनीतिक प्रश्नों को केंद्र में रखकर लिखे गए। नुक्कड़ नाटकों ने भी सामाजिक परिवर्तन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। सफदर हाशमी का ‘जन नाट्य मंच’ इसका एक उदाहरण है। 

थिएटर समाज के यथार्थ को सामने लाने का सबसे प्रभावी माध्यम है। यह उन मुद्दों पर चर्चा करता है, जिन पर अक्सर पर्दा डाल दिया जाता है–जैसे जातिवाद, ग़रीबी, पितृसत्ता, सामाजिक भेदभाव और भ्रष्टाचार। यह लोगों को सोचने और बदलाव के लिए प्रेरित करता है। 

रंगमंच किसी भी संस्कृति की आत्मा होता है। यह हमारी लोककथाओं, परंपराओं और जीवनशैली को सहेजने और अगली पीढ़ी तक पहुँचाने का कार्य करता है। उदाहरण के लिए, भारत के विभिन्न राज्यों में पाई जाने वाली लोक नाट्य शैलियाँ जैसे कि ‘यक्षगान’ (कर्नाटक), ‘तमाशा’ (महाराष्ट्र), ‘भवाई’ (गुजरात), ‘नौटंकी’ (उत्तर प्रदेश) आदि अपनी सांस्कृतिक पहचान को जीवित रखती हैं। 

रंगमंच केवल मनोरंजन का साधन नहीं, बल्कि यह एक क्रांतिकारी उपकरण भी है। ‘नुक्कड़ नाटक’ और ‘राजनीतिक थिएटर’ ने जनता को जागरूक करने और सामाजिक अन्याय के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने का काम किया है। सफदर हाशमी की हत्या ने यह सिद्ध किया कि थिएटर केवल एक कला नहीं, बल्कि एक आंदोलन भी हो सकता है। 

रंगमंच न केवल कला प्रेमियों के लिए बल्कि छात्रों और युवाओं के मानसिक विकास के लिए भी महत्त्वपूर्ण है। यह आत्मविश्वास, संप्रेषण कौशल और नेतृत्व क्षमता को विकसित करता है। थिएटर के माध्यम से व्यक्ति अपनी भावनाओं को बेहतर ढंग से व्यक्त कर सकता है और दूसरों की संवेदनाओं को समझ सकता है। 

वर्तमान समय में इंटरनेट, वेब सीरीज़ और सिनेमा के बढ़ते प्रभाव ने थिएटर के अस्तित्व को चुनौती दी है। लोग थिएटर देखने कम जाते हैं और ऑनलाइन कंटेंट की ओर आकर्षित होते हैं। डिजिटल प्लैटफ़ॉर्म पर थिएटर को लाना इस क्षेत्र को बचाने के लिए एक ज़रूरी क़दम है। 

भारत में थिएटर कलाकारों को आर्थिक स्थिरता नहीं मिलती। सरकारी अनुदानों की कमी, प्रायोजकों की उदासीनता और थिएटर के लिए समुचित बुनियादी ढाँचे की अनुपलब्धता, इस क्षेत्र के समक्ष गंभीर चुनौतियाँ हैं। कई युवा कलाकार थिएटर छोड़कर अन्य मीडिया में चले जाते हैं। 

थिएटर को बचाने और आगे बढ़ाने के लिए सरकार, समाज और कलाकारों को मिलकर काम करना होगा। थिएटर को स्कूलों और विश्वविद्यालयों में अनिवार्य विषय के रूप में शामिल किया जाना चाहिए। नए तकनीकी नवाचारों के साथ थिएटर को आधुनिक रूप देना आवश्यक है। 

आजकल थिएटर को ऑनलाइन स्ट्रीमिंग प्लैटफ़ॉर्म्स और सोशल मीडिया के माध्यम से प्रस्तुत किया जा सकता है। वर्चुअल थिएटर और हाइब्रिड मंचन से इसकी लोकप्रियता बढ़ाई जा सकती है। 

ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में नुक्कड़ नाटक सामाजिक जागरूकता का प्रभावी माध्यम बन सकते हैं। यदि युवा वर्ग इस दिशा में सक्रिय हो, तो थिएटर समाज में पुनः अपनी जगह बना सकता है। 

स्कूल और कॉलेज स्तर पर थिएटर को अनिवार्य विषय के रूप में लागू किया जाए, जिससे नई पीढ़ी इसकी ओर आकर्षित हो। 

सरकार को थिएटर को बढ़ावा देने के लिए अधिक अनुदान, थिएटर फ़ेस्टिवल और नए थिएटर हॉल बनाने चाहिए। कॉर्पोरेट कंपनियों को थिएटर में निवेश करने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। 

रंगमंच केवल एक कला नहीं, बल्कि समाज का दर्पण और विचारों की क्रांति का मंच है। यह हमें हँसाता है, रुलाता है, सोचने पर मजबूर करता है और अंततः समाज में बदलाव लाने का कार्य करता है। विश्व रंगमंच दिवस केवल एक दिन की रस्म नहीं होनी चाहिए, बल्कि हमें इसे अपनी संस्कृति और चेतना का अभिन्न अंग बनाना होगा। 

थिएटर जीवित रहेगा, यदि समाज इसे केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि अपनी आत्मा की अभिव्यक्ति माने। रंगमंच की शक्ति को पुनः पहचानने और उसे नए युग के अनुरूप विकसित करने की आवश्यकता है। यह केवल एक मंच नहीं, बल्कि एक आंदोलन है–समाज के बदलाव और चेतना के पुनर्जागरण का आंदोलन! 

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