अमरेश सिंह भदौरिया - मुक्तक - 002
अमरेश सिंह भदौरिया1.
कुछ इस तरह अपनी चाहत मैं निभा लेता हूँ।
तस्वीर तेरी चूमकर सीने से लगा लेता हूँ।
समझ न ले दिल के जज़्बात ज़माना ये कहीँ,
भीगकर बरसात में आँसू मैं बहा लेता हूँ।
2.
दास्तान-ए-इश्क़ भी है आग़ पानी की तरह।
महक भी मिलती है इसमें रातरानी की तरह।
समय जिसका ठीक हो मिलती उसे ख़ैरात में,
वक़्त के मारों को मिलती मेहरबानी की तरह।
3.
शायद मेरी नेकियों का
कुछ असर अभी बाक़ी है।
या कि तुम्हारी कोशिशों में
कुछ क़सर अभी बाक़ी है।
गर्दिशों में रहकर भी गर
मुकर्रर है मेरा वजूद,
तो मंज़िल है तेरी दूर
तेरा सफ़र अभी बाक़ी है।
4.
सबब ज़िंदगी का सिर्फ़ महफ़िल से नहीं मिलता।
कोई दिल से नहीं मिलता किसी से दिल नहीं मिलता।
शौक़ दरियादिली का यहाँ पालें भी तो कैसे,
कहीं दरिया नहीं मिलता कहीं पर दिल नहीं मिलता।
5.
क़द उसी किरदार का ज़माने
में बड़ा है।
भीड़ के कंधों पर पैर रखकर
जो खड़ा है।
6.
ओढ़कर ख़ामोशियाँ ये
तुम न यूँ गुमसुम रहो।
आओ बैठो पास मेरे
हाल-ए-दिल हमसे कहो।
हो जहन्नुम या कि जन्नत
दोनों ही स्वीकार मुझको,
शर्त इतनी है कि "अमरेश"
साथ मेरे तुम रहो।
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