बोनस का दीपक

01-11-2025

बोनस का दीपक

अमरेश सिंह भदौरिया (अंक: 287, नवम्बर प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

ऑफ़िस में दीपावली की हलचल थी। दीवारों पर रंगीन झालरें लटक रही थीं, टेबलों पर मोमबत्तियाँ रखी जा रही थीं और हर कोई अपने-अपने तरीक़े से “मालिक” के आगे अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहा था। 

रामखेलावन अपनी पुरानी फ़ाइलों को क़रीने से सजा रहा था। पसीने से भीगा माथा, माथे पर झुर्रियाँ—मगर आँखों में एक अजीब-सी उम्मीद थी। पिछले तीन साल से वह हर दीपावली पर यही सोचता था—“इस बार तो मालिक ख़ुश होकर कुछ देगा . . . शायद बोनस, शायद वेतन में वृद्धि . . .” 

रामखेलावन तीस साल से संस्था में काम कर रहा था। दफ़्तर की हर दीवार उसकी ईमानदारी की गवाही देती थी। फ़ाइलों के पन्नों से लेकर टेबल की धूल तक, उसने सबको दुलार से सँवारा था। लेकिन पिछले तीन वर्षों से उसे मिलती थी सिर्फ़ एक बात—“रामखेलावन, तुम तो हमारे परिवार के सदस्य हो . . . परिवार में कोई बोनस नहीं देता बेटा, सब कुछ अपना ही है।” 

उसी संस्था में कुछ “नवयुवक प्रतिभाएँ” भी थीं—जो हर सप्ताह मालिक की तारीफ़ में फ़ेसबुक पोस्ट डालते, दीवाली से पहले ही अपने घर की दीवार पर मालिक का फोटो टाँग देते और वॉट्सऐप पर “सर, आपकी दूरदर्शी सोच” जैसे संदेश भेजते रहते। 

इस साल भी पुरस्कार वितरण का कार्यक्रम हुआ। मालिक ने मंच पर आते हुए कहा–“हमारी संस्था कर्मठ कर्मचारियों की बदौलत इस ऊँचाई पर पहुँची है। हमें उन पर गर्व है।” 

तालियाँ बजीं—पर उन तालियों में सच्चाई कम, दिखावा ज़्यादा था। 

पुरस्कार सूची पढ़ी गई—वही नाम, जो हर साल थे। वे लोग जिनकी मेहनत से ज़्यादा चमक उनके शब्दों में थी। 

रामखेलावन पीछे खड़ा मुस्कुरा रहा था—जैसे उसे कोई दुख नहीं। 

पर जब समारोह समाप्त हुआ, तो उसने धीरे से अपने पास बैठे सहयोगी से कहा—“लगता है मेहनत अब पुराने ज़माने की चीज़ हो गई है। अब तो बोनस उन लोगों को मिलता है जो बोलते ज़्यादा हैं, काम कम।” 

शाम को घर लौटा तो बच्चों ने पूछा, “बाबूजी, इस बार कुछ मिला?” 

रामखेलावन ने मुस्कुराते हुए कहा,“हाँ बेटा, मालिक ने आशीर्वाद दिया है।” 
बच्चे ख़ुश हो गए, पर उसकी पत्नी समझ गई—वह फिर इस बार ख़ाली हाथ लौटा है। 

उसने थके स्वर में पूछा, “कब तक यूँ ही उम्मीद करते रहोगे?” 
रामखेलावन बोला, “उम्मीद भी तो दीपावली का ही दीपक है . . . बुझा दूँ तो अँधेरा बढ़ जाएगा।” 

बाहर महल्ले में पटाखों की आवाज़ गूँज रही थी। लोग ख़ुश थे, बोनस बाँट रहे थे। 

रामखेलावन ने अपने घर के बाहर मिट्टी का एक छोटा दिया जलाया—और फुसफुसाया—“शायद अगले साल मालिक सच में रोशनी बाँटे . . .” 

दीपक की लौ काँप रही थी, पर बुझी नहीं—जैसे उसके मन में अब भी एक छोटी-सी, मगर जीवित आस्था जल रही हो। 

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