फुहार
अमरेश सिंह भदौरिया
नर्म घास पर नंगे पाँव चलते हुए
अचानक छू जाती है एक बूँद—
ना जाने किस दिशा से आई,
किसका भेजा हुआ संदेशा थी।
पेड़ों की पत्तियाँ
जैसे सहम कर मुस्कुराती हैं,
बिलकुल वैसे ही
मन की थकी हुई शाखों पर
छनकर गिरती है वह पहली फुहार।
धरती कुछ नहीं कहती,
पर उसकी चुप्पी में
एक पुलक होती है—
जैसे बरसों की प्रतीक्षा
अब शब्दों में नहीं,
माटी की गंध में बोल रही हो।
बच्चे दौड़ पड़ते हैं—
न माँ की पुकार सुनते हैं,
न छाता याद रखते हैं;
उनके लिए
हर फुहार एक उत्सव है,
हर भीगना एक स्वतंत्रता।
खिड़की से झाँकती वह स्त्री
धीरे से हँस देती है,
बचपन की कुछ पुरानी तस्वीरें
भीगने लगती हैं भीतर ही भीतर।
एक पुराना नाम—
धूल के नीचे दबा हुआ
फिर से उभर आता है
बूँदों की रेखाओं में।
कविता लिखने बैठा कवि
कागज़ बंद कर देता है,
वह जानता है—
कुछ अनुभूतियाँ
कविता नहीं बनतीं,
सिर्फ चुपचाप
भीगने के लिए होती हैं।
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