सकठू की दीवाली

01-11-2025

सकठू की दीवाली

अमरेश सिंह भदौरिया (अंक: 287, नवम्बर प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

सकठू आज फिर दीया जला रहा है—
वही टूटी चौकी, वही आधा दिया, 
और वही उम्मीद
जो हर साल तेल ख़त्म होने से पहले बुझ जाती है। 
 
उसकी बीवी कहती है—
“छोड़ो जी, इस बार दीया मत जलाइए, 
तेल भी महँगा है और उजाला अब
मोबाइल की स्क्रीन पर आता है।” 
 
सकठू हँस देता है, 
उस हँसी में मिठाई का स्वाद नहीं, 
बस वक़्त की कटुता घुली है। 
कहता है—
“दीवाली तो मनानी ही पड़ेगी, 
वरना गाँव वाले कहेंगे—
सकठू अब शहर वालों की तरह अकड़ गया!” 
 
घर में बिजली नहीं, 
पर नोटिस तीन बार आ चुके हैं। 
बच्चे स्कूल की फ़ीस पूछते हैं, 
सकठू कहता है—
“फिलहाल तो लक्ष्मी जी प्रधान जी के घर रुकी हैं।” 
 
उधर प्रधान जी की छत पर झालरें झिलमिला रही हैं, 
केक कट रहा है, 
ड्रोन कैमरे से फोटो खिंच रहे हैं। 
सकठू अपने दीए की लौ देखकर सोचता है—
“हमारे हिस्से का उजाला भी शायद
किसी पोस्टर में चला गया।” 
 
रात के सन्नाटे में
सकठू के दीए की बाती झिलमिलाती है—
जैसे अँधेरे से लड़ने की उसकी आख़िरी कोशिश। 
वह कहता है—
“हर साल सोचता हूँ, अबकी कुछ बदलेगा, 
पर हर साल दीया छोटा पड़ जाता है
और अँधेरा बड़ा।” 
 
फिर भी वह दीया जलाता है—
क्योंकि उसे डर है, 
अगर बुझा दिया तो
सरकार कहेगी—
“देखो, लोगों ने ख़ुद ही रोशनी छोड़ दी।” 

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