कमरबंद
अमरेश सिंह भदौरिया
मैं कमरबंद हूँ—
शृंगार नहीं,
एक अनकहा अनुबंध हूँ
देह और सामाजिक मर्यादा के बीच।
सोने-चाँदी से गढ़ा गया मेरा रूप,
किन्तु मेरा भार—
बस धातु का नहीं होता,
वह होता है
परंपराओं का,
जिन्होंने स्त्री की कमर पर
सदियों से अधिकार जमाया है।
कभी चुपचाप खनक उठती हूँ
उसके हर एक मोड़ पर,
उसकी चाल में—
शालीनता का संगीत बनकर,
तो कभी बँध जाती हूँ कसकर
उसकी स्वाभाविक उड़ानों को
संयम की ज़ंजीर में।
मैंने देखा है
उसका बचपन—
जब पहली बार पहनाया गया मुझे
एक खेल की तरह,
और फिर
उसका यौवन—
जब खेल नहीं,
एक नियति बन गई मैं।
मैंने सुना है
उसका मौन—
जब वह
सजते हुए भी
भीतर से सिमटती थी,
मुझे ढोते हुए भी
अपनी पहचान तलाशती थी।
मैं हूँ—
जो उसके हर उत्सव में साथ रही,
पर हर विद्रोह में अकेली छूट गई।
अब समय है—
कि मुझे पहनते हुए
वह चुन सके अपनी मर्यादा स्वयं,
कि मैं गहना बनूँ,
बंधन नहीं।
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