इतिहास के दो दर्पण
अमरेश सिंह भदौरिया
भारत का सांस्कृतिक इतिहास केवल ईंट-पत्थरों या युद्धों की गाथाओं से नहीं बना है, बल्कि उन कथाओं से बना है जिन्होंने युग-युगांतर तक मानव-जीवन को दिशा दी। रामायण और महाभारत ये दोनों महाकाव्य केवल धार्मिक ग्रंथ नहीं, बल्कि समाज, राजनीति, दर्शन और मानव-जीवन के गहन आयामों को उद्घाटित करने वाले दर्पण हैं। रामायण जहाँ आदर्शों के स्वर्ण युग का प्रतिनिधित्व करती है, वहीं महाभारत हमें यथार्थ और पतन के संघर्ष से रूबरू कराती है। इन दोनों ग्रंथों की तुलना केवल अतीत को समझने का अभ्यास नहीं, बल्कि वर्तमान समाज की चुनौतियों पर दृष्टि डालने का अवसर भी है। यदि हम ध्यान से देखें तो इन दोनों महाकाव्यों के केंद्र में पाँच प्रमुख स्तंभ हैं—गुरु, नारी, भ्रातृ सम्बन्ध, राजसत्ता और समाज की नैतिक चेतना। यही स्तंभ किसी भी सभ्यता के उत्थान और पतन का निर्धारण करते हैं। आइए, इन पर क्रमवार विचार करें।
रामायण काल में गुरु समाज की आत्मा माने जाते थे। गुरु वशिष्ठ का स्थान राजा दशरथ के दरबार में सर्वोच्च था। उनकी बात केवल परामर्श नहीं, बल्कि आदेश मानी जाती थी। वे सत्ता से स्वतंत्र थे और सत्ता उनकी छाया में अपनी मर्यादा खोजती थी। यही कारण था कि उस युग में शिक्षा और ज्ञान सच्चे मार्गदर्शन के पर्याय बने रहे।
इसके विपरीत, महाभारत में गुरु द्रोणाचार्य विवशता के प्रतीक बन गए। वे अपार ज्ञान और शौर्य के धनी थे, किन्तु सत्ता के दबाव में बंधक हो गए। उन्हें अपने ही शिष्यों के विरुद्ध हथियार उठाने पड़े। यहाँ ज्ञान सत्ता का मोहताज हो गया।
आज के परिप्रेक्ष्य में यह प्रश्न अत्यंत प्रासंगिक है—क्या हमारे शिक्षक और विद्वान स्वतंत्र हैं? क्या वे समाज को दिशा दे पा रहे हैं या फिर सत्ता और संस्थागत दबावों के आगे विवश हैं? यदि ज्ञान सत्ता के अधीन हो जाएगा, तो शिक्षा मार्गदर्शन का नहीं, बल्कि चापलूसी का माध्यम बन जाएगी।
रामायण में नारी के सम्मान को सर्वोच्च माना गया। सीता के अपहरण के कारण राम ने लंका जैसे शक्तिशाली साम्राज्य को चुनौती दी। सीता केवल पत्नी नहीं थीं, वे उस युग की नारी गरिमा की प्रतीक थीं। राम का युद्ध एक स्त्री के सम्मान के लिए था, जिसने पूरे समाज को यह संदेश दिया कि नारी की गरिमा से बड़ा कोई धर्म नहीं।
इसके विपरीत, महाभारत में द्रौपदी का चीरहरण सभ्यता का सबसे बड़ा कलंक है। भरी सभा में नारी का अपमान हुआ और भीष्म, द्रोण जैसे महाज्ञानी मौन बने रहे। यह मौन केवल उस सभा का नहीं, बल्कि उस युग की नैतिक पराजय का प्रतीक था।
आज हम स्वयं से प्रश्न करें—क्या आधुनिक समाज में नारी सचमुच सुरक्षित और सम्मानित है? समाचार पत्रों की सुर्ख़ियाँ बताती हैं कि सीता के सम्मान के लिए लड़ी गई लड़ाई आज भी अधूरी है। द्रौपदी का चीरहरण भले ही महाभारत की कथा हो, लेकिन उसकी प्रतिध्वनि आज भी हमारे समाज की गलियों में सुनाई देती है।
रामायण में भ्रातृ प्रेम का अनुपम उदाहरण राम और भरत का सम्बन्ध है। भरत ने सत्ता को ठुकराकर राम की खड़ाऊँ को सिंहासन पर रखकर राज्य चलाया। सत्ता त्याग के आगे नतमस्तक हो गई। यह प्रेम केवल रक्त-सम्बन्ध नहीं था, बल्कि आदर्श और त्याग की पराकाष्ठा थी।
महाभारत में यही सम्बन्ध शत्रुता का कारण बन गया। कौरव और पांडव एक ही कुल के होते हुए भी सत्ता के लोभ में युद्धरत हो गए। भ्रातृ प्रेम ईर्ष्या और प्रतिद्वंद्विता में बदल गया। यही युद्ध परिवार और समाज की जड़ों को हिला देने वाला सिद्ध हुआ।
आज भी पारिवारिक झगड़े, सम्पत्ति विवाद और भाइयों के बीच संघर्ष हमें यह सोचने पर मजबूर करते हैं कि क्या हम राम-भरत के मार्ग पर हैं या दुर्योधन-युधिष्ठिर के संघर्ष पर?
रामायण का रामराज्य आदर्श शासन का प्रतीक है। वहाँ राजा और प्रजा के बीच विश्वास था। न्याय, कर्त्तव्य और सेवा राजसत्ता के मूल आधार थे। यही कारण है कि आज भी “रामराज्य” शब्द आदर्श शासन के रूप में प्रयोग होता है।
महाभारत में राजसत्ता स्वार्थ और छल का प्रतीक बन गई। दुर्योधन का शासन लोभ और अन्याय से भरा था। सत्ता के लिए वह किसी भी सीमा तक जाने को तैयार था, चाहे वह द्रौपदी का अपमान हो या चतुराई से पासा फेंकना। यह सत्ता की नैतिकता के पतन का युग था।
आज राजनीति और शासन व्यवस्था की स्थिति पर विचार करें—क्या हमारे नेता रामराज्य के आदर्शों की ओर अग्रसर हैं, या दुर्योधन की स्वार्थपूर्ण राजनीति के अनुयायी बन गए हैं? जनता का विश्वास वहीं टूटता है जहाँ सत्ता सेवा के बजाय स्वार्थ का साधन बन जाती है।
रामायण काल में समाज धर्म और मर्यादा से बँधा था। हर नागरिक अपने कर्त्तव्यों को समझता था। छोटी-सी भी चूक समाज को आंदोलित कर देती थी। यही कारण था कि राम को भी सीता की अग्निपरीक्षा की कठिन परिस्थिति का सामना करना पड़ा—क्योंकि समाज का विश्वास सर्वोपरि था।
महाभारत में वही समाज पतन की ओर बढ़ गया। सभा में द्रौपदी का अपमान हुआ और उपस्थित जन मौन बने रहे। भीष्म जैसे महान योद्धा और द्रोण जैसे विद्वान भी अन्याय के विरुद्ध आवाज़ उठाने का साहस न कर सके। यह समाज की नैतिक चेतना के ह्रास का प्रतीक था।
आज का समाज भी इसी कसौटी पर खड़ा है। क्या हम अन्याय और अपराध के विरुद्ध आवाज़ उठाते हैं, या फिर महाभारत की सभा की तरह मौन साध लेते हैं? मौन केवल अपराधी का नहीं, समाज का भी अपराध बन जाता है। रामायण और महाभारत की यह तुलना हमें केवल इतिहास का अध्ययन नहीं कराती, बल्कि हमारे आज और कल का रास्ता भी दिखाती है।
यदि शिक्षा स्वतंत्र न होगी तो हम द्रोणाचार्य की विवशता को दोहराएँगे।
यदि नारी का सम्मान सुरक्षित न होगा तो द्रौपदी की पीड़ा फिर जीवित हो जाएगी।
यदि भ्रातृ सम्बन्ध स्वार्थ में बदल जाएँगे तो महाभारत जैसा संघर्ष हर घर में होगा।
यदि सत्ता लोभ और छल में डूब जाएगी तो दुर्योधन का राज्य बार-बार लौटेगा।
और यदि समाज अन्याय पर मौन रहेगा तो सभ्यता का अस्तित्व ही ख़तरे में पड़ जाएगा।
रामायण हमें यह संकेत देती है कि समाज का स्वरूप कैसा होना चाहिए—जहाँ मर्यादा ही आभूषण हो, कर्त्तव्य ही धर्म हो और त्याग ही सच्चा वैभव। वहीं महाभारत हमें यह चेतावनी सुनाता है कि यदि मनुष्य लोभ, स्वार्थ और अन्याय के पथ पर विचलित हो जाए, तो उसका अंत कितना विनाशकारी हो सकता है। ये दोनों महाकाव्य केवल प्राचीन आख्यान नहीं, अपितु हमारे जीवन के दो दर्पण हैं—रामायण आदर्शों का, और महाभारत यथार्थ का। एक हमें आकाश की ओर उन्मुख करता है, तो दूसरा हमें धरती की कठोर सच्चाइयों से साक्षात्कार कराता है।
आज आवश्यकता इस संतुलन की है—कि हम रामायण से आदर्शों की प्रेरणा लें और महाभारत से पतन के दुष्परिणामों को समझें। तभी वर्तमान में हमारी दिशा उज्ज्वल होगी और भविष्य आलोकित। अंततः निर्णय हमारे ही हाथों में है—हम किस युग को चुनते हैं? राम का आदर्श युग, जहाँ जीवन मर्यादा और धर्म से सुशोभित है, या महाभारत का वह विवश युग, जहाँ स्वार्थ और अधर्म मनुष्य को पतन की गर्त में ढकेल देता है।
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