कुरुक्षेत्र
अमरेश सिंह भदौरिया
हर युग में जन्म लेता है एक कुरुक्षेत्र,
जहाँ युद्ध तलवारों से नहीं,
संघर्ष होता है—
मौन बनाम मुखरता,
सिद्धांत बनाम सुविधा का।
जहाँ अर्जुन खड़ा होता है,
नहीं पहचान पाता—
शत्रु और स्नेही के बीच का अंतर,
क्योंकि सामने खड़े होते हैं—
अपने: गुरु, बंधु, कुल-धर्म।
धर्म साफ़ होता है,
पर उसे निभाना कठिन,
क्योंकि अधर्म अब
कौरवों के कवच में नहीं,
संस्थागत कुर्सियों के भीतर छुपा होता है।
कृष्ण अब रथ नहीं चलाते,
वो अंतरात्मा की आवाज़ बनकर
धीरे से कहते हैं—
“उठो, और लड़ो।
मौन भी कभी-कभी
पाप का सहभागी बन जाता है।”
कुरुक्षेत्र अब केवल एक स्थान नहीं,
ये हर वो पल है—
जब तुम्हें
सुविधा चुननी होती है या सत्य।
हर बार जब तुम सोचते हो—
“चुप रह लें . . . क्या फ़र्क पड़ता है . . . “
वहीं से युद्ध आरंभ होता है।
क्योंकि—
धर्म की रक्षा
ध्वनि नहीं, साहस माँगती है।
और जो अर्जुन
अपने ही प्रश्नों से हार जाए—
उसका गांडीव
शस्त्र नहीं, शंका बन जाता है।
0 टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
- कविता
-
- अधनंगे चरवाहे
- अनाविर्भूत
- अहिल्या का प्रतिवाद
- अख़बार वाला
- आँखें मेरी आज सजल हैं
- आज की यशोधरा
- आरक्षण की बैसाखी
- आस्तीन के साँप
- आख़िर क्यों
- इक्कीसवीं सदी
- उपग्रह
- कुरुक्षेत्र
- कोहरा
- क्यों
- खलिहान
- गाँव - पहले वाली बात
- चुप रहो
- चुभते हुए प्रश्न
- चैत दुपहरी
- जब नियति परीक्षा लेती है
- तितलियाँ
- दहलीज़
- दिया (अमरेश सिंह भदौरिया)
- दीपक
- देह का भूगोल
- धरती की पीठ पर
- धोबी घाट
- नदी सदा बहती रही
- पहली क्रांति
- पीड़ा को नित सन्दर्भ नए मिलते हैं
- पुत्र प्रेम
- प्रभाती
- प्रेम की चुप्पी
- बंजर ज़मीन
- भगीरथ संकल्प
- भावनाओं का बंजरपन
- माँ
- मुक्तिपथ
- मुखौटे
- मैं भला नहीं
- योग्यता का वनवास
- लेबर चौराहा
- शस्य-श्यामला भारत-भूमि
- सँकरी गली
- सरिता
- ललित निबन्ध
- सांस्कृतिक आलेख
- चिन्तन
- सामाजिक आलेख
- शोध निबन्ध
- कहानी
- ललित कला
- साहित्यिक आलेख
- पुस्तक समीक्षा
- लघुकथा
- कविता-मुक्तक
- हास्य-व्यंग्य कविता
- गीत-नवगीत
- विडियो
-
- ऑडियो
-