अधनंगे चरवाहे
अमरेश सिंह भदौरिया
प्रातःकाल की प्रथम किरण के साथ
वे जाग उठते हैं—
कंधे पर बाँस की लाठी,
सिर पर अँगोछा बाँधे,
नंगे पाँव धरती की नब्ज़ टटोलते
चरागाह की ओर बढ़ चलते हैं।
चिथड़े वस्त्रों में भी
उनकी दृष्टि में होती है
स्वप्नों की उजास—
हरियाली की तलाश
उन्हें सुदूर खेतों तक ले जाती है।
उनकी थैली में होती है
माँ के हाथों की रोटियाँ,
थोड़ा नमक, एक प्याज़,
और मन में संतोष का भाव—
जैसे न्यूनता में भी
समग्र जीवन समाहित हो।
वृक्षों की छाया में
कभी बाँसुरी की धुन छेड़ते,
कभी पशुओं से संवाद करते
वे समय की गति को
अपनी लय में बाँध लेते हैं।
गर्मियों की तीव्र लू हो,
या वर्षा की मूसलधार,
या शीत का काँपता दिन—
चरवाहे कभी थकते नहीं,
क्योंकि उनका जीवन
प्रकृति से अनुबंधित होता है।
पगडंडियाँ उनकी कथा कहती हैं,
धूल उन्हें पहचानती है,
और साँझ की गोधूलि
उनके चरणों को
धूप से लौटती छायाओं की तरह चूमती है।
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