संपन्नता के बदलते मायने
अमरेश सिंह भदौरिया
बीते हुए कल और आज के बीच यदि कोई सबसे बड़ा अंतर है, तो वह जीवन के मूल्यों की परिभाषा में आया बदलाव है। इस बदलाव की सबसे तीखी अभिव्यक्ति ‘संपन्नता’ शब्द के नए अर्थ में दिखाई देती है। संपन्नता, जो कभी आत्मा के सौंदर्य और व्यवहार की गरिमा से नापी जाती थी, आज केवल एक चमकीले खोल में सिमटकर रह गई है।
जब धन परोपकार की राह पकड़ता है, तभी वह पूजनीय बनता है। वरना वह केवल अहंकार का बोझ बनकर मनुष्य को भीतर से खोखला कर देता है।
हमारे पुरखों के समय में, संपन्नता का पैमाना केवल यह नहीं था कि किसी व्यक्ति के ख़जाने में कितना सोना-चाँदी है। बल्कि, यह देखा जाता था कि उसका व्यवहार कैसा है, वह अपने से छोटों के साथ कितनी विनम्रता से पेश आता है, और समाज के लिए उसका योगदान क्या है? एक धनी व्यक्ति को तब तक ‘संपन्न’ नहीं माना जाता था जब तक वह संस्कारों से समृद्ध न हो। विनम्रता, ईमानदारी, त्याग और परोपकार—ये वे अदृश्य गहने थे जो उसकी संपन्नता को असली चमक देते थे। धन का आगमन तब ‘ईश्वर का आशीर्वाद’ माना जाता था, जिसका उपयोग वह अपने परिवार की ख़ुशहाली के साथ-साथ धर्म और सेवा के कार्यों में करता था। संपन्नता एक साधन थी, जो व्यक्ति को और अधिक नैतिक और ज़िम्मेदार बनाती थी।
किन्तु, आज की बाज़ार-केंद्रित दुनिया ने इस अर्थ को पलट दिया है। आज संपन्नता का सीधा और एकमात्र अर्थ है ‘उपभोग की क्षमता’। हमारे समाज में एक धारणा बन गई है कि जिसके पास सबसे अधिक महँगी वस्तुएँ, बड़ी गाड़ियाँ और भव्य जीवनशैली है, वही सबसे अधिक सफल और संपन्न है। इस दौड़ में, ‘कैसे कमाया’ और ‘चरित्र की लागत क्या थी’—ये प्रश्न पूरी तरह से हाशिये पर चले गए हैं।
यह वह मोड़ है जहाँ संपन्नता अपनी पवित्रता खोकर एक समस्या बन जाती है। जब व्यक्ति की सारी ऊर्जा केवल अधिक से अधिक भौतिक सुखों को बटोरने पर केंद्रित हो जाती है, तो नैतिकता और मानवीय मूल्य पीछे छूट जाते हैं।
आज संपन्नता का विकृत रूप हमें चारों ओर दिखाई देता है—यानी ‘व्यभिचार को बढ़ावा’। यह व्यभिचार केवल व्यक्तिगत अनैतिकता तक सीमित नहीं है, बल्कि इसका विस्तार व्यावसायिक, सामाजिक और राजनीतिक जीवन तक हो चुका है।
धन की शक्ति ने लोगों को यह भ्रम दे दिया है कि वे क़ानून, नैतिकता और सामाजिक मर्यादाओं से ऊपर हैं। यही कारण है कि हम आए दिन भ्रष्टाचार, अहंकार का प्रदर्शन, और ग़रीबों के प्रति संवेदनहीनता देखते हैं। जब व्यक्ति के पास साधन बहुत अधिक होते हैं और संस्कार बहुत कम, तो उसकी संपन्नता सृजन करने के बजाय विध्वंस करने लगती है। यह विडंबना है कि आज का धनी व्यक्ति बाहर से भले ही भव्य दिखता हो, पर अक्सर आंतरिक रूप से ख़ाली और अस्थिर होता है। उसकी दौलत उसे शान्ति और संतोष नहीं, बल्कि असुरक्षा और लालच देती है।
आज समाज को इस भयानक सत्य का सामना करना होगा कि केवल धन से समाज का कल्याण नहीं होता, सद्गुणों से होता है। हमें यह सबक़ फिर से सीखना होगा कि सच्चा सुख शांत मन और संतोष भरे जीवन में है, न कि वस्तुओं के ढेर में। यदि हमें एक स्वस्थ और स्थायी समाज चाहिए, तो हमें संपन्नता के अर्थ को फिर से उसके मूल से जोड़ना होगा—यानी संस्कारों और व्यवहार से। हमें अपनी युवा पीढ़ी को यह सिखाना होगा कि सबसे बड़ी सफलता वह नहीं है जो बैंक बैलेंस में दिखाई दे, बल्कि वह है जो आपके आचरण और मानवीय संबंधों में झलकती है।
जब संपन्नता परोपकार की राह पर चलती है, तभी वह पूजनीय होती है। हमें यह संकल्प लेना होगा कि हमारा धन हमें विनम्र और ज़िम्मेदार बनाएगा, अहंकारी और अनैतिक नहीं। यही वह वापसी है जिसकी माँग यह बदलता समय कर रहा है—भौतिक समृद्धि के साथ-साथ आत्मिक समृद्धि की वापसी।
0 टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
- सामाजिक आलेख
- हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
- कविता
-
- अधनंगे चरवाहे
- अधूरा सच
- अनंत पथ
- अनाविर्भूत
- अभिशप्त अहिल्या
- अमरबेल
- अमलतास
- अवसरवादी
- अहिल्या का प्रतिवाद
- अख़बार वाला
- आँखें मेरी आज सजल हैं
- आँगन
- आँगन की तुलसी
- आज की यशोधरा
- आज वाल्मीकि की याद आई
- आरक्षण की बैसाखी
- आस्तीन के साँप
- आख़िर क्यों
- इक्कीसवीं सदी
- उपग्रह
- उपग्रह
- एकाकी परिवार
- ओस की बूँदें
- कचनार
- कछुआ धर्म
- कमरबंद
- कुरुक्षेत्र
- कैक्टस
- कोहरा
- क्यों
- खलिहान
- गाँव - पहले वाली बात
- गिरगिट
- चित्र बोलते हैं
- चुप रहो
- चुभते हुए प्रश्न
- चूड़ियाँ
- चैत दुपहरी
- चौथापन
- जब नियति परीक्षा लेती है
- ज्वालामुखी
- ढलती शाम
- तितलियाँ
- दंड दो मुझे
- दहलीज़
- दिया (अमरेश सिंह भदौरिया)
- दीपक
- दृष्टिकोण जीवन का अंतिम पाठ
- देह का भूगोल
- देहरी
- दो जून की रोटी
- धरती की पीठ पर
- धोबी घाट
- नदी सदा बहती रही
- नयी पीढ़ी
- नेपथ्य में
- पगडंडी पर कबीर
- परिधि और त्रिभुज
- पहली क्रांति
- पहाड़ बुलाते हैं
- पाखंड
- पारदर्शी सच
- पीड़ा को नित सन्दर्भ नए मिलते हैं
- पुत्र प्रेम
- पुष्प वाटिका
- पूर्वजों की थाती
- प्रभाती
- प्रारब्ध को चुनौती
- प्रेम की चुप्पी
- फुहार
- बंजर ज़मीन
- बंजारा
- बबूल
- बवंडर
- बिखरे मोती
- बुनियाद
- भगीरथ संकल्प
- भाग्य रेखा
- भावनाओं का बंजरपन
- भुइयाँ भवानी
- मन मरुस्थल
- मनीप्लांट
- महावर
- माँ
- मुक्तिपथ
- मुखौटे
- मैं भला नहीं
- योग्यता का वनवास
- रहट
- रातरानी
- लेबर चौराहा
- शक्ति का जागरण
- शस्य-श्यामला भारत-भूमि
- शान्तिदूत
- सँकरी गली
- संयम और साहस का पर्व
- सकठू की दीवाली
- सती अनसूया
- सरिता
- सावन में सूनी साँझ
- सैटेलाइट का मोतियाबिंद
- हरसिंगार
- हल चलाता बुद्ध
- ज़ख़्म जब राग बनते हैं
- ऐतिहासिक
- सांस्कृतिक आलेख
-
- कृतज्ञता का पर्व पितृपक्ष
- कृष्ण का लोकरंजक रूप
- चैत्र नवरात्रि: आत्मशक्ति की साधना और अस्तित्व का नवजागरण
- जगन्नाथ रथ यात्रा: आस्था, एकता और अध्यात्म का महापर्व
- न्याय और अन्याय के बीच
- परंपरा के पार—जहाँ गुण जाति से ऊपर उठे
- बलराम जयंती परंपरा के हल और आस्था के बीज
- बुद्ध पूर्णिमा: शून्य और करुणा का संगम
- योगेश्वर श्रीकृष्ण अवतरणाष्टमी
- रामनवमी: मर्यादा, धर्म और आत्मबोध का पर्व
- लोक आस्था का पर्व: वट सावित्री पूजन
- विजयदशमी—राम और रावण का द्वंद्व, भारतीय संस्कृति का संवाद
- विश्व योग दिवस: शरीर, मन और आत्मा का उत्सव
- श्राद्ध . . . कृतज्ञता और आशीर्वाद का सेतु
- लघुकथा
- किशोर साहित्य कविता
- साहित्यिक आलेख
- कहानी
- चिन्तन
- सांस्कृतिक कथा
- ललित निबन्ध
- शोध निबन्ध
- ललित कला
- पुस्तक समीक्षा
- कविता-मुक्तक
- हास्य-व्यंग्य कविता
- गीत-नवगीत
- विडियो
-
- ऑडियो
-