आज की यशोधरा
अमरेश सिंह भदौरियाइस तरह
निशीथ वेला में
चुपचाप उठकर
अँधेरे का फ़ायदा उठाकर
आँखें बंद किये हुए
गहन निद्रा में सोयी
परिणीता के दामन से
चिपके हुए दुधमुँहे बच्चे को
अपने लक्ष्य की बाधा मानते हुए
छोड़कर . . .!
तुम निकल गए स्वत्व की खोज में!
और वापस लौटे तो इस संसार ने
तुम्हें दिया महात्मा का सम्बोधन!
यक़ीनन बहुत बड़ी उपलब्धि थी
पर . . . समय सापेक्ष!
काश आज आप ऐसा कर पाते?
मैं अकारण ही आपके बुद्धत्व पर
ये प्रश्न-चिन्ह नहीं लगा रहा!
इसके कुछ ठोस कारण हैं
आज की सदी के पास!
मैं देख रहा हूँ तीसरी आँख से
दिन के उजाले में . . . !
आज की यशोधरा को
जो अब अबला नहीं है!
उसने अपने हृदय में केवल
दया, ममता, वात्सल्य,
करुणा, समर्पण और त्याग
ही नहीं प्रसूत किया है . . . !
उसने जन्म दिया है अपने हृदय में
मस्तिष्क वाले पुरुषत्व को!
जो चाह रखता है स्वामित्व की!
उसने सिर्फ़ त्याग की रामचरितमानस
और निष्काम कर्म की गीता ही नहीं पढ़ी!
उसने पढ़े हैं स्त्री विमर्श वाले त्रिपिटक!
उसने पढ़ा है संघर्ष का महाभारत!
उसने रटे हैं अपने अधिकार के पहाड़े!
आज वो सोयी हुई नहीं है
आज वो सजग है
आज वो जाग्रत है!
आज वो लैस है
अपने हक़ के अधिकार से!
आज अगर महात्मा बनकर
तुम लौटते भरे मधुमास में तो
याचना करने से भी नहीं मिलता
तुम्हें तुम्हारे प्रेम का प्रतिदान!
इसके विपरीत तुम्हें
देना पड़ता गुज़ारा भत्ता
और . . . !
और . . . !
और . . . !
लौटाना पड़ता . . .!
वो और . . . !
पहली छुवन का अहसास भी
जो शायद ही तुम दे पाते . . .!!