रातरानी
अमरेश सिंह भदौरिया
जब साँझ
बिन बोले उतरती है आँगन पर,
और तुलसी के चौरे पर
दीपक की लौ
पलकों की तरह काँपती है—
उसी वक़्त
कोई चुपचाप खिलने लगती है—
रातरानी।
न शृंगार, न काजल,
फिर भी उसकी गंध
मधुमास-सी
मन के भीतर उतर जाती है।
जैसे किसी नवोढ़ा के केशों से
भीनी-भीनी तेल की महक
अचानक
हवा में भर जाए।
वह खिड़की के पर्दों को सरकाकर
चाँद को एकटक देखती है,
और चाँद . . .
उसकी साँसों में
धूप की जगह चाँदनी रख जाता है।
रातरानी—
गाँव की वह स्त्री है
जो दिन भर मिट्टी में सने हाथों से
घर को साजती है,
पर रात होते ही
अपने बालों में कंघी फेर
गंध बनकर
साँसों की छाँव हो जाती है।
चारपाई के सिरहाने
किसी प्रिय का नाम
धीरे से पुकारती हुई—
वह संकोच में सिमटी
प्रेम की पहली कविता-सी लगती है।
उसकी चुप्पी
न केवल शृंगार है,
बल्कि प्रतीक्षा भी है—
कि कोई . . .
उसके भीतर खिलते फूल की महक को
सुन सके, समझ सके।
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