पाती
अमरेश सिंह भदौरियासंबंधों का हाल सुनाने अब कहाँ आती।
सुधियों की पाती हाँ सुधियों की पाती।
आधुनिकता में कहीं खो गयी
बीते कल की बात हो गयी
बाबू जी का वही तराना
बात-बात में यूँ उकताना
गृहस्थी का बोझ उठाए
अम्मा झुँझलाती।
सुधियों की पाती हाँ सुधियों की पाती।
कच्ची माटी का सोंधापन
चिंताओं से मुक्त वो बचपन
तन की पीड़ा मन की पीड़ा
विरहिणी के अँसुवन की पीड़ा
आँगन की तुलसी में
प्रतिदिन जलती सँझवाती।
सुधियों की पाती हाँ सुधियों की पाती।
काटे कटे न सूनी रतियाँ
प्रीति भरी यौवन की बतियाँ
परदेसी की याद समेटे
अनकहे संवाद समेटे
मेघों की सावनी घटाएँ
रह-रह तड़पाती।
सुधियों की पाती हाँ सुधियों की पाती।
फ़सलें झूमें मचल-मचल कर
यूँ धानी परिधान पहन कर
ईश्वर का दिया है सब कुछ
नहीं चाहिए और अधिक कुछ
अपनी कथा-व्यथा भौजाई
ननदी से लिखवाती।
सुधियों की पाती हाँ सुधियों की पाती।
बच्चे भी अब बड़े हो गए
अपने पैरों खड़े हो गए
नई बहू का आना घर में
ख़ुशियों भरा ख़ज़ाना घर में
साझी रसोई साझा चूल्हा
साझी दाल-चपाती।
सुधियों की पाती हाँ सुधियों की पाती।
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