उम्मीद
अमरेश सिंह भदौरिया
सर्दियों की एक धुँधभरी सुबह थी। कोहरे में लिपटा स्टेशन ठंड से सिहर रहा था। प्लेटफ़ॉर्म नंबर तीन पर एक वृद्धा बैठी थी—बिलकुल चुप, जैसे किसी ने जीवन की आवाज़ छीन ली हो। सिर पर जर्जर ऊनी चादर, गोद में पुराना टिफ़िन डिब्बा, और आँखों में एक जमी हुई प्रतीक्षा।
पास ही खड़े एक युवक ने दया-भाव से पूछा, “माई, कहाँ जाना है आपको?”
वृद्धा ने धीरे-से उत्तर दिया, मानो अपनी ही आवाज़ से डरती हो, “बेटा, दिल्ली . . . वहीं मेरा बेटा नौकरी करता है . . . दो साल से आया नहीं . . . इस बार बोला है, ख़ुद लेने आएगा . . . शायद इस बार सच में आ जाए।”
युवक कुछ क्षण चुप रहा, फिर झिझकते हुए बोला, “अगर न आए तो?”
वृद्धा की आँखों में नमी तैर गई, पर होंठों पर फीकी मुस्कान थी, “तो अगली गाड़ी का इंतज़ार करूँगी . . . माँ कभी उम्मीद से हारती है क्या?”
इतने में अनाउंसमेंट हुआ:
“गाड़ी संख्या 12429, नई दिल्ली जाने वाली ट्रेन, प्लेटफ़ॉर्म नंबर तीन पर आ रही है।”
वह धीरे-धीरे खड़ी हो गई। आँखें गाड़ी के हर डिब्बे को निहारने लगीं . . . जैसे हर उतरने वाला उसके आँचल में आकर छुप जाएगा।
गाड़ी रुकी . . . भीड़ उतरी . . . फिर छँट गई . . .
पर उसका बेटा नहीं आया।
वृद्धा फिर वहीं बैठ गई। चादर और कसकर लपेट ली। टिफ़िन डिब्बा अब भी बंद था। पर उसकी आँखों में अब भी एक रोशनी थी—बुझी नहीं थी . . .
वह उम्मीद की रोशनी थी।
दार्शनिक निहितार्थ—
यह कथा केवल एक माँ की प्रतीक्षा नहीं, बल्कि उस भावना का प्रतिबिंब है जो रिश्तों को समय और दूरी के परे जीवित रखती है।
उम्मीद, माँ के आँचल में पले उस प्रेम की तरह होती है, जो बार-बार ठुकराए जाने पर भी मुरझाता नहीं।
यह सिर्फ़ एक वृद्ध महिला की कहानी नहीं—यह हर उस दिल की कहानी है जो रिश्तों के लौट आने का इंतज़ार करता है।
जहाँ दुनिया तर्क से चलती है, वहाँ माँ जैसे लोग प्रेम और विश्वास से जीते हैं।
और सच तो यह है कि
उम्मीद कभी वृद्ध नहीं होती।
वह हर धड़कन में, हर साँस में, हर आँसू में
एक नई सुबह की प्रतीक्षा करती रहती है।
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