रहट

अमरेश सिंह भदौरिया (अंक: 283, सितम्बर प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

खेत के कोने में अब भी
जंग खाई एक रहट खड़ा है—
बिलकुल वैसे ही
जैसे दादी की कहानियाँ
जो अब कोई नहीं सुनता।
 
कभी
उसकी साँकलें गूँजती थीं
गायों के रंभाने और
कुएँ के जल की टप-टप संग—
कभी यह धुरी था
गाँव की धड़कनों का।
 
वह बैल,
जिसकी आँखों पर पट्टी बँधी होती,
जानता था
घूमना ही उसकी नियति है—
फिर भी
हर चक्कर में
पानी उलीचता रहा
किसी और की प्यास बुझाने को।
  
रहट
सिर्फ एक यंत्र नहीं था—
वह श्रम का संगीत था,
वह विश्वास था
कि हर मेहनत का फल
अंततः जीवन देता है।
 
अब वह चुप है—
उसके काँधे थक चुके हैं,
साँकलें चुपचाप जंग खा रही हैं,
और
बैल की जगह अब
मशीनें हैं
जिनमें संवेदनाएँ नहीं।

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