देह का भूगोल
अमरेश सिंह भदौरिया
यह देह—
सिर्फ़ मांस-पेशियों का ढाँचा नहीं,
यह एक भूगोल है,
जिस पर समय ने अपने निशान बनाए हैं।
इस माथे की रेखाएँ—
अनगिनत सोचों की पर्वत शृंखलाएँ हैं,
जहाँ हर चिंता
बर्फ़ बनकर जमी है वर्षों से।
इन आँखों की झीलों में
भावनाओं का ज्वार आता है,
कभी स्नेह की वर्षा,
तो कभी विरह की जलधाराएँ।
हथेलियाँ—
श्रम के पठार हैं,
जहाँ वर्षों की मेहनत ने
रेत और पसीने से मिट्टी उपजाई है।
पाँव—
उन पगडंडियों के नक़्शे हैं,
जिन्हें पार कर
मैंने रिश्तों, संघर्षों और सपनों की सीमाएँ तय कीं।
यह हृदय—
मानो किसी भूगोल का सबसे गुप्त द्वीप है,
जहाँ प्रेम छिपा रहता है,
और पीड़ा, हर रात ज्वालामुखी बन कर फूटती है।
देह का यह भूगोल
हर दिन बदलता है,
उम्र की तरह, अनुभवों की तरह,
जैसे धरती पर बदलते हों नक़्शे—
राज्य घटते-बढ़ते हों,
पर भीतर की मिट्टी वही रहती है—
संवेदनशील, धड़कती हुई।
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