तपते अधरों पर

15-09-2025

तपते अधरों पर

अमरेश सिंह भदौरिया (अंक: 284, सितम्बर द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)

 

गर्मी की दोपहरी थी। सूरज की किरणें मानो ज़मीन पर उतरकर जल रही थीं, और हवा का हर झोंका एक गरम साँस बनकर रामू और उसकी गाय गोरी के शरीर को झुलसा रहा था। गाँव का तालाब तो कब का सूख चुका था, और दूर-दूर तक पानी का नामोनिशान नहीं था। रामू की सूखी, फटी हुई जीभ पर जैसे काँटे चुभ रहे थे, और उसके तपते अधरों से सिर्फ़ एक ही शब्द निकल रहा था, “पानी . . .” उसने अपनी ख़ाली मटकी को उलटा, और जो दो-चार बूँदें अंदर की मिट्टी में क़ैद थीं, वो भी भाप बन कर उड़ गईं। गोरी ने अपनी बड़ी-बड़ी, उदास आँखों से रामू की तरफ़ देखा, और उसकी सूखी, नमकीन जीभ ने रामू के हाथ को चाटा। वह शायद कह रही थी, “हिम्मत मत हारो, मालिक। हम पहुँच जाएँगे।” रामू को लगा जैसे उसकी आँखों से भी कुछ गरम-गरम बह निकला। यह आँसू थे या पसीना, वह समझ नहीं पाया। 

वे दोनों धीरे-धीरे पास की नदी की ओर चल पड़े। नदी भी अब एक पतली, मैली धार बनकर रह गई थी, जिसमें कीचड़ और रेत का ही राज था। रामू ने जैसे-तैसे गोरी को उस कीचड़ में से थोड़ा पानी पिलाया। गोरी ने प्यास बुझाई और फिर रामू की तरफ़ देखा, मानो कह रही हो, “अब तुम्हारी बारी।” पर रामू ने अपने तपते अधरों को भीगने नहीं दिया। 

तभी, झाड़ियों में से एक बूढ़ा, कमज़ोर हिरण बाहर आया। उसके पैर थरथरा रहे थे और उसकी आँखों में ज़िंदगी की उम्मीद कम और मौत का डर ज़्यादा था। वह नदी की तरफ़ बढ़ा, पर उसके पास उतनी भी ताक़त नहीं बची थी कि वह कीचड़ तक पहुँच सके। रामू ने गोरी को धीरे से पीछे किया और अपने तपते अधरों की परवाह किए बिना, अपनी अंजुली में उस गंदे कीचड़ भरे पानी को भरा और हिरण की तरफ़ बढ़ा। उसने धीरे से हिरण के मुँह के पास अंजुली लगाई। हिरण ने पानी पिया और फिर अपनी गीली, कृतज्ञ आँखों से रामू को देखा। 

जब रामू वापस गोरी के पास लौटा, तो गोरी की आँखों में उदासी नहीं, बल्कि स्नेह और गर्व था। रामू ने भी ख़ुद को एक बार फिर से महसूस किया। उसके तपते अधरों पर भले ही पानी नहीं था, पर मन में एक अजीब सी शीतलता थी। उसे लगा कि जीवन में पानी की प्यास से भी बड़ी, दया और करुणा की प्यास होती है, और जब वह बुझती है, तो आत्मा तृप्त हो जाती है। उसी पल, दूर आसमान में बादलों की गड़गड़ाहट सुनाई दी। यह सिर्फ़ बारिश का वादा नहीं था, बल्कि रामू को अपनी मानवता पर मिले एक इनाम का संकेत था। उसने अपने सूखे होंठों को छुआ और एक फीकी मुस्कान उसके चेहरे पर खिल गई। उसने महसूस किया कि जीवन में कुछ प्यासें पानी से नहीं, बल्कि आत्मा की नमी से बुझती हैं। 

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