हल चलाता बुद्ध
अमरेश सिंह भदौरिया
वो बोलता नहीं,
बस सुबह सबसे पहले खेत की दिशा पकड़ता है।
ना बौद्ध ग्रंथ,
ना प्रवचन की आवश्यकता—
उसके पाँव की पगडंडी ही उसका धम्म है।
माथे पर पसीना,
हाथ में लकड़ी का पुराना हल,
और आँखों में
एक शान्ति जो किसी आश्रम से नहीं,
मिट्टी से आई है।
वो जब बीज बोता है,
तो उसके साथ
प्रार्थनाएँ भी ज़मीन में उतरती हैं।
वो नहीं डरता अकाल से,
क्योंकि उसने आशाओं की फ़सलें
कई बार सूखते देखी हैं,
और फिर भी
हर मौसम में श्रद्धा बोई है।
वो बुद्ध है—
जिसने साँसों के साथ खेत जोते हैं,
जिसने “इच्छा” को पसीने में गलाया है।
जिसका “निर्वाण”
शहरों के शोर से नहीं,
हल की खींच में आया है।
क्योंकि—
जब कोई
मौन रहकर
धरती को समझता है,
तो वो केवल किसान नहीं रहता—
वो ‘हल चलाता बुद्ध’ हो जाता है।
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