श्राद्ध . . . कृतज्ञता और आशीर्वाद का सेतु
अमरेश सिंह भदौरिया
भारतीय संस्कृति में संस्कार शब्द केवल अनुष्ठानों तक सीमित नहीं है। यह व्यक्ति के जीवन के उन क्षणों को भी समेटे हुए है, जहाँ वह अपने भीतर झाँकता है, अपनी जड़ों को पहचानता है और अपने अस्तित्व को गहराई से महसूस करता है। इस दृष्टि से श्राद्ध मात्र एक तिथि या विधि नहीं, बल्कि आत्मा और समय के बीच का एक गंभीर संवाद है। हमारे शास्त्रों ने श्राद्ध को कृतज्ञता का उत्सव कहा है। जब हम अपने पितरों को अर्पण करते हैं, तो वह अर्पण केवल तिल, जल या पिंड का नहीं होता; वह अर्पण हमारी स्मृतियों, हमारी आस्था और हमारी विनम्रता का होता है। इस अवसर पर मनुष्य का मन केवल बाह्य जगत से नहीं, अपने भीतर के अदृश्य सूत्र से भी जुड़ता है।
“श्राद्ध वह संस्कार है
जहाँ स्मृतियाँ श्रद्धा बनकर अश्रु में ढलती हैं
और आशीर्वाद आकाश से उतरकर जीवन को पावन करते हैं।”
इन पंक्तियों में श्राद्ध का वास्तविक स्वरूप निहित है। यह वह क्षण है, जब स्मृतियाँ आँसुओं में बदल जाती हैं— आँसू जो हृदय की भीतरी गहराइयों से फूटते हैं। यह आँसू दुःख के नहीं, बल्कि एक अदृश्य ऋण के हैं; वह ऋण जो हमारी नस-नस में बह रहा है और हमें जीवन, संस्कार और पहचान देता आया है। जब मनुष्य इस ऋण का स्मरण करता है, तो उसका अहंकार गल जाता है। अहंकार के गलते ही आशीर्वाद आकाश से उतरते हैं; क्योंकि आशीर्वाद वहीं उतरते हैं, जहाँ कृतज्ञता और नम्रता का आसन बिछा हो। श्राद्ध हमें यह भी सिखाता है कि जीवन केवल ‘वर्तमान क्षण’ का नाम नहीं है। हम समय की एक निरंतर धारा में बह रहे हैं, जिसके पीछे पीढ़ियों का अतीत है और आगे पीढ़ियों का भविष्य। इस धारा में हमारा अस्तित्व केवल एक पड़ाव है। यह विचार हमें अपने कर्मों, अपने आचरण और अपने उत्तरदायित्व के प्रति सचेत करता है। इस दृष्टि से श्राद्ध अतीत और भविष्य के बीच सेतु का कार्य करता है।
आज के बदलते समय में, जब बाहरी भोग-विलास और तर्कशीलता ने परंपराओं को प्रश्नों के घेरे में ले लिया है, श्राद्ध की प्रासंगिकता और भी बढ़ जाती है। यह हमें यह याद दिलाता है कि आधुनिकता और विज्ञान के बीच भी स्मृतियों और आशीर्वादों की अपनी एक मौन भाषा है, जो समय से परे है। यह हमें बताता है कि हमारी पहचान केवल व्यक्तिगत नहीं है; यह सामूहिक भी है–एक वंश, एक संस्कृति, एक परंपरा, और एक नैतिक चेतना की पहचान। श्राद्ध का संस्कार हमें विनम्रता, कृतज्ञता और विवेक सिखाता है। यह हमें पूर्वजों के प्रति ही नहीं, बल्कि समग्र जीवन के प्रति नम्र बनाता है। यह अवसर हमें अपने आत्म-संशोधन के लिए भी प्रेरित करता है–कि हम भी अपने कर्म, अपने विचार और अपने व्यवहार ऐसे बनाएँ, जिससे आने वाली पीढ़ियाँ हमें स्मरण करते समय गर्व महसूस करें, आशीर्वाद दें, और हमारे जीवन से सीख लें।
अतः श्राद्ध केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं है। यह एक जीवित परंपरा है, जिसमें स्मृतियाँ अश्रु बनकर बहती हैं और आशीर्वाद आकाश से उतरकर हमारी आत्मा को आलोकित करते हैं। यह वह अवसर है, जब हम अपने पूर्वजों के ऋण को स्मरण करते हुए अपनी आत्मा को शुद्ध करते हैं और अपनी पीढ़ियों के लिए एक उज्ज्वल मार्ग बनाते हैं।
0 टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
- कविता
-
- अधनंगे चरवाहे
- अधूरा सच
- अनाविर्भूत
- अमरबेल
- अमलतास
- अवसरवादी
- अहिल्या का प्रतिवाद
- अख़बार वाला
- आँखें मेरी आज सजल हैं
- आँगन
- आँगन की तुलसी
- आज की यशोधरा
- आरक्षण की बैसाखी
- आस्तीन के साँप
- आख़िर क्यों
- इक्कीसवीं सदी
- उपग्रह
- उपग्रह
- एकाकी परिवार
- कचनार
- कछुआ धर्म
- कमरबंद
- कुरुक्षेत्र
- कैक्टस
- कोहरा
- क्यों
- खलिहान
- गाँव - पहले वाली बात
- गिरगिट
- चित्र बोलते हैं
- चुप रहो
- चुभते हुए प्रश्न
- चूड़ियाँ
- चैत दुपहरी
- चौथापन
- जब नियति परीक्षा लेती है
- ज्वालामुखी
- ढलती शाम
- तितलियाँ
- दहलीज़
- दिया (अमरेश सिंह भदौरिया)
- दीपक
- दृष्टिकोण जीवन का अंतिम पाठ
- देह का भूगोल
- देहरी
- दो जून की रोटी
- धरती की पीठ पर
- धोबी घाट
- नदी सदा बहती रही
- नयी पीढ़ी
- नेपथ्य में
- पगडंडी पर कबीर
- परिधि और त्रिभुज
- पहली क्रांति
- पहाड़ बुलाते हैं
- पाखंड
- पीड़ा को नित सन्दर्भ नए मिलते हैं
- पुत्र प्रेम
- पुष्प वाटिका
- पूर्वजों की थाती
- प्रभाती
- प्रेम की चुप्पी
- फुहार
- बंजर ज़मीन
- बंजारा
- बबूल
- बवंडर
- बिखरे मोती
- बुनियाद
- भगीरथ संकल्प
- भाग्य रेखा
- भावनाओं का बंजरपन
- भुइयाँ भवानी
- मन मरुस्थल
- मनीप्लांट
- महावर
- माँ
- मुक्तिपथ
- मुखौटे
- मैं भला नहीं
- योग्यता का वनवास
- रहट
- रातरानी
- लेबर चौराहा
- शक्ति का जागरण
- शस्य-श्यामला भारत-भूमि
- शान्तिदूत
- सँकरी गली
- संयम और साहस का पर्व
- सती अनसूया
- सरिता
- सावन में सूनी साँझ
- हरसिंगार
- हल चलाता बुद्ध
- ज़ख़्म जब राग बनते हैं
- सांस्कृतिक आलेख
-
- कृतज्ञता का पर्व पितृपक्ष
- कृष्ण का लोकरंजक रूप
- चैत्र नवरात्रि: आत्मशक्ति की साधना और अस्तित्व का नवजागरण
- जगन्नाथ रथ यात्रा: आस्था, एकता और अध्यात्म का महापर्व
- न्याय और अन्याय के बीच
- बलराम जयंती परंपरा के हल और आस्था के बीज
- बुद्ध पूर्णिमा: शून्य और करुणा का संगम
- योगेश्वर श्रीकृष्ण अवतरणाष्टमी
- रामनवमी: मर्यादा, धर्म और आत्मबोध का पर्व
- लोक आस्था का पर्व: वट सावित्री पूजन
- विश्व योग दिवस: शरीर, मन और आत्मा का उत्सव
- श्राद्ध . . . कृतज्ञता और आशीर्वाद का सेतु
- साहित्यिक आलेख
- कहानी
- सामाजिक आलेख
- लघुकथा
- चिन्तन
- सांस्कृतिक कथा
- ऐतिहासिक
- हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
- ललित निबन्ध
- शोध निबन्ध
- ललित कला
- पुस्तक समीक्षा
- कविता-मुक्तक
- हास्य-व्यंग्य कविता
- गीत-नवगीत
- विडियो
-
- ऑडियो
-