प्रसाद

01-09-2025

प्रसाद

अमरेश सिंह भदौरिया (अंक: 283, सितम्बर प्रथम, 2025 में प्रकाशित)


गर्मी की दोपहरी थी। मंदिर प्रांगण में निःशब्द शान्ति पसरी थी। गिनती के दो-तीन भक्त सुबह की आरती के बाद लौट चुके थे। पुजारी जी अकेले बैठे हुए थे—हाथ में दीपक की बाती सुधारते हुए, मानो ईश्वर से कुछ कह रहे हों। 

तभी मंदिर की सीढ़ियाँ चढ़ता एक दुबला-पतला बालक, धूल से सना चेहरा, फटे-पुराने कपड़े पहने, हाँफता हुआ आया और बोला, “पंडित जी . . . माँ कहती हैं कि आज उनके हिस्से का प्रसाद ज़रूर भेज दीजिएगा। वो बहुत बीमार हैं . . . तीन दिन से कुछ नहीं खाया।”

पुजारी जी कुछ क्षण के लिए स्तब्ध रह गए। फिर मुस्कुराए और बोले, “अरे बेटा, माँ को कहना भगवान याद कर रहे हैं उन्हें। ये लो, ये भगवान का प्रसाद है।”

उन्होंने लोटे में जल भरा, उसमें तुलसी की पत्ती डाली, थाली में दो टुकड़े गुड़ और थोड़ा चूड़ा रखा। बालक ने प्रसाद लिया, पर उसकी आँखों में आँसू आ गए। धीरे से बोला, “पंडित जी . . . माँ कहती थीं कि भगवान रोज़ कुछ न कुछ देते हैं, पर पिछले तीन दिन से मंदिर बंद था। क्या भगवान भी कभी छुट्टी पर जाते हैं?” 

वाक्य छोटा था, पर भीतर तक चुभ गया। 

पुजारी की आँखें भर आईं। दीपक की लौ एक ओर झुक गई थी, पर आज पुजारी के भीतर कोई और दीपक जल गया था—सेवा और करुणा का दीपक। 

उन्होंने पुकारकर कहा, “बेटा, ज़रा रुक जा . . . माँ के लिए मैं कुछ और भी देता हूँ। और सुन, कल से मंदिर बंद नहीं होगा। भगवान तेरी माँ को रोज़ याद करेंगे।”

 

दार्शनिक निहितार्थ—

ईश्वर केवल घंटियों की गूँज और 
आरती की लौ में नहीं बसते—
वे उस नन्हे हाथ में अधिक जीवंत होते हैं जो 
भूख से काँपते हुए श्रद्धा से फैले होते हैं। 
 
धर्म, अगर केवल 
पूजन की विधियों तक सीमित रह जाए, 
और प्रसाद, अगर केवल 
सज्जनों के थालों तक पहुँच जाए—
तो वहाँ ईश्वर नहीं, केवल अनुष्ठान शेष रह जाते हैं। 
 
भूख और पीड़ा जब मंदिर की सीढ़ियाँ चढ़ती है, 
तो प्रसाद देना एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं, 
बल्कि मानवीय आत्मा का इम्तिहान बन जाता है। 
 
करुणा ही वह दीपक है जो 
ईश्वर को मंदिर से उठाकर
मनुष्य के हृदय तक लाता है। 
 
इसलिए याद रखिए—
ईश्वर की सबसे प्रिय पूजा वह है, 
जो किसी भूखे के मुँह में अन्न, 
और किसी पीड़ित की आँखों में 
विश्वास बनकर उतरती है। 

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