कृष्ण का लोकरंजक रूप

01-09-2025

कृष्ण का लोकरंजक रूप

अमरेश सिंह भदौरिया (अंक: 283, सितम्बर प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

श्रीकृष्ण का नाम लेते ही मेरे मन में सबसे पहले वही नटखट, हँसता-खेलता बालक आता है, जो गोकुल की गलियों में माखन चुराता है। सच कहूँ तो, जब भी किसी कथा में यह प्रसंग सुनता हूँ, तो बरबस बचपन याद आ जाता है—वह मासूम शरारत, वह छुपकर मिठाई खाने का आनंद। शायद इसी वजह से कृष्ण हमें इतने अपने लगते हैं, जैसे वे ईश्वर नहीं, बल्कि हमारे ही बीच के कोई साथी हों। ईश्वर का यह बाल-रूप हमें यह विश्वास दिलाता है कि दैवीयता केवल कठोर साधना में नहीं, बल्कि जीवन की छोटी-छोटी मुस्कानों में भी बसती है। कभी-कभी जब गाँव के मेले में कृष्ण की झाँकी देखता हूँ, तो लगता है कि यह केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि पूरे गाँव का उत्सव है। बच्चे उनकी बाँसुरी देखकर झूम उठते हैं, महिलाएँ भजन गाते हुए तल्लीन हो जाती हैं और बुज़ुर्ग कहानियाँ सुनाते हुए मानो फिर से अपने बचपन में लौट जाते हैं। उस क्षण प्रतीत होता है कि कृष्ण केवल ग्रंथों में नहीं, बल्कि लोक की धड़कनों और साँसों में जीवित हैं। यही तो उनका लोकरंजक रूप है—जहाँ धर्म केवल पूजा नहीं, बल्कि सामूहिक आनंद और जीवन का उत्सव बन जाता है। 

राधा और गोपियों के साथ उनकी रासलीला भी मुझे कुछ ज़्यादा ही गहराई से छूती है। यह केवल प्रेमकथा नहीं, बल्कि आत्मा और परमात्मा के मिलन का प्रतीक है। गाँव की होली में जब फाग गाए जाते हैं, तब लगता है जैसे वही रास आज भी जीवित है। प्रेम का यह लोकायन ही कृष्ण को युगों-युगों तक प्रासंगिक बनाता है। प्रेम उनके यहाँ केवल भावुकता नहीं, बल्कि जीवन का दर्शन है, जिसमें कोई बँधन नहीं, केवल आत्मिक संगति है। महाभारत का कृष्ण एक और ही आयाम सामने रखता है। द्रौपदी की लाज बचाने वाला कृष्ण, सुदामा को गले लगाने वाला कृष्ण—ये प्रसंग बताते हैं कि ईश्वर पूजाघरों तक सीमित नहीं होता, बल्कि जीवन की कठिन घड़ियों में सबसे पहले हाथ बढ़ाता है। यहाँ कृष्ण लोकमंगल और लोकनीति के आदर्श के रूप में सामने आते हैं। वे केवल नीति के ज्ञाता ही नहीं, बल्कि लोक-हृदय के धड़कते साथी हैं। 

मेरे लिए कृष्ण का लोकरंजक रूप यही सिखाता है कि ईश्वर तब तक हमसे दूर ही लगता है, जब तक हम उसे केवल मंदिर की मूर्ति, ग्रंथ की कथा या पूजा-पाठ की विधि तक सीमित रखते हैं। लेकिन जैसे ही हम उसे अपने जीवन के हर छोटे क्षण में—हँसी में, खेल में, संवाद में और संघर्ष में—महसूस करने लगते हैं, वह तुरंत निकट आ जाता है। कृष्ण का आकर्षण इसी अपनत्व में है। वे पहले हमारे साथी बनते हैं, तभी देवता के रूप में स्वीकार्य होते हैं। शायद इसी कारण वे भारतीय लोक-जीवन में अमर हैं, क्योंकि उनका देवत्व उनके अपनत्व में घुला हुआ है। 

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