पाखंड

अमरेश सिंह भदौरिया (अंक: 284, सितम्बर द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)

 

वो बोला—
“हम राम के भक्त हैं!”
और
तभी पीछे किसी दलित बच्चे का रोटी छू जाना
पाप हो गया। 
 
वो बोली—
“नारी देवी है हमारे यहाँ!”
और
घूँघट के पीछे दबी
उसकी पढ़ाई की किताबें अब भी चीख़ रही हैं। 
 
वो लिखता है—
“सर्व धर्म समभाव!”
पर मस्जिद से निकलते ही
उसकी नज़रें तलवार ढूँढ़ने लगती हैं। 
 
वो पहनता है
तीर्थ का तिलक, 
पर मुट्ठी में कैलकुलेटर है—
दान के बाद कितनी प्रसिद्धि मिलेगी, 
इसका हिसाब भी साथ चलता है। 
 
हर गली में
एक मंदिर खड़ा है, 
और हर मन में
एक दीवार उग आई है। 
 
धूप फैलाने वाले दीप
अब धुएँ से डरने लगे हैं, 
क्योंकि श्रद्धा अब व्यापार है, 
और आस्था—एक मुखौटा। 
 
पाखंड अब धर्म नहीं, 
धंधा हो चला है। 

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