बवंडर

अमरेश सिंह भदौरिया (अंक: 284, सितम्बर द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)

 

वह हवा नहीं होती
जो बालों से खेल जाए—
बवंडर आता है
तो मिट्टी भी
अपने चेहरे पर हाथ रख लेती है। 
 
वह खेतों की हरियाली नहीं पूछता, 
न ही छप्पर की कमज़ोर बुनावट, 
वह सिर झुकाए
पेड़ों की जड़ें उखाड़ देता है
जैसे इतिहास मिटा रहा हो
अपना ही नाम। 
 
बवंडर—
कभी भीतर उठता है
शब्दों की चुप्पी में, 
जहाँ कोई मन
तहस-नहस हो जाता है
बिना किसी आहट के। 
 
वह टूटे सपनों की धूल भी उड़ाता है, 
और कभी-कभी
किसी जर्जर नींव पर
सच का दरवाज़ा खोजता है। 
 
बवंडर में
हर चीज़ हल्की हो जाती है—
नियम, नैतिकता, सम्बन्ध, 
और सिर्फ़ वही टिकता है
जो जड़ों से जुड़ा हो। 
 
क्योंकि बवंडर कभी स्थायी नहीं होता, 
लेकिन वह बता जाता है
कि किसकी नींव में धरती है—
और किसके पैरों तले
सिर्फ़ भ्रम। 

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