दिल्ली नज़र आई

15-03-2025

दिल्ली नज़र आई

अमरेश सिंह भदौरिया (अंक: 273, मार्च द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)


समीक्षित पुस्तक: दिल्ली नज़र आई (ग़ज़ल संकलन)
लेखक: नन्दी लाल ‘निराश’
प्रकाशक: श्वेतवर्णा प्रकाशन, 232, B1, लोक नायक, बक्करवाल, न्यू देहली-110041
ISBN: 978-81-981869-9-7
पृष्ठ संख्या: 112
मूल्य: ₹299.00

अभिमत

संवेदना, संजीदगी और सदाशयता की पावन त्रिवेणी से अभिषिक्त, अभिमंत्रित व अभिपोषित ये अनुपम ग़ज़ल संग्रह “दिल्ली नज़र आई” आपके सुकोमल हाथों में सौंपते हुए प्रसन्नता मिश्रित आनंद की सघन अनुभूति हो रही है। यह नन्दीलाल 'निराश' जी का आठवाँ ग़ज़ल संग्रह है। नन्दीलाल जी पेशे से अवकाश प्राप्त बैंकर, मस्तिष्क से प्रखर चिंतक, हृदय से सतत साहित्य साधक और मन से स्थिर चित्त हैं। आपकी रचनाधर्मिता की साहित्य साधना के लगभग पाँच दशक से अधिक समय हो गया है। 

नन्दीलाल 'निराश' जी का नाम किसी परिचय का मुहताज (आश्रित) नहीं है। हर रचनाकार अपना अलग मिज़ाज रखता है और वह अपने देशकाल, अपनी पारिवारिक, सामाजिक, राजनैतिक साथ ही आर्थिक परिस्थितियों से पूर्णतः या अंशतः प्रभावित होता है। इन सबके दबाव व प्रभाव के तहत ही वह अपनी कालजयी क़लम से हृदय में अनुभूत सत्य को उद्भासित करता है। वही अनुभूत सत्य सत्यं शिवं सुन्दरम् (सत्यं शिवं सुन्दरम् किसी वस्तु या नीति के जाँच की कसौटी प्रस्तुत करने वाला वाक्य है। इसका अर्थ है कि कोई चीज़ यदि सत्य है, कल्याणकारी है, और सुन्दर है–तभी वह ग्राह्य है) का अनुपम प्रलेख (दस्तावेज़) बनकर आप जैसे सुधी पाठकों के हृदय को आनंदित, आंदोलित और तरंगित करता है। साहित्य में इसी को परिभाषित शब्दावली में काव्ययात्रा कहा गया है जो एक हृदय से निकलकर बिना क्षय के दूसरे हृदय तक पहुँचती है। 

भारतीय उपमहाद्वीप में, ग़ज़ल की शुरूआत 12वीं शताब्दी में फ़ारसी कवि अमीर खुसरो द्वारा की गई थी, जिन्हें फ़ारसी और भारतीय संगीत परंपराओं को मिलाकर ग़ज़ल का एक नया रूप बनाने का श्रेय दिया जाता है। तब से लेकर ग़ज़ल ने आज तक एक लंबा सफ़र तय किया है। इस सफ़र में ग़ज़ल ने कई उतार-चढाव भी देखे और आत्मसात किए। उर्दू-फ़ारसी ग़ज़ल के समानांतर विकसित होती हुई हिंदी ग़ज़ल की परंपरा का जो स्वरूप आज हमारे सम्मुख विद्यमान है, उसे देखकर लगता है कि हिंदी ग़ज़ल आज मुग्धा नायिका की सुकोमल हथेलियों पर चित्रित मेहँदी की दंतकथा नहीं, अपितु भाषा के भोजपत्र पर अंकित विप्लव का बीजमंत्र है। अँधेरी सुरंग में जलती हुई मशाल जैसा अस्तित्व रखनेवाली हिंदी ग़ज़ल का स्वरूप विलासिता के रंग में रँगी दरबारी सभ्यता एवं संस्कृति से पूर्णतया विच्छिन्न है, जो दीर्घकाल तक नायिका के सुडौल शरीर का भूगोल वाचन करती रही और पीड़ितों की कराहों से नहीं, आशिक़ों की आहों से संबद्ध रही। वर्तमान हिन्दी ग़ज़लों की इसी फ़ेहरिस्त (सूचीपत्र) में एक स्वयंसिद्ध नाम नन्दीलाल ‘निराश’ जी का विगत कई दशकों से शामिल है। आपकी पारखी और संवेदनशील साहित्यिक नज़र गतिशील चरित्र वाले इंसान के व्यवहार में आयी स्तरीय गिरावट को समझने में तनिक भी विलंब नहीं करती:

राज़ उनके प्यार के सब हम उठा लाये, 
हो गए उस्ताद हम जो सेंध मारी में॥

किसी के विषय में कुछ कहने से पहले उसको सही ढंग से समझना फिर दिल से प्रशंसा करना, दिमाग़ से हस्तक्षेप करना और विवेक से प्रतिक्रिया देना, इसी में ही समझदारी है अन्यथा मौन रहना ही श्रेयस्कर है। एक कहावत है सत्य मौन इसलिए हो जाता है क्योंकि उसे पता है कुछ बातों का जवाब सिर्फ़ समय देगा। ऐसे ही समय के अनुत्तरित सवालों का जवाब है ये ग़ज़ल संग्रह। महानगरीय परिवेश में रहने के बाद भी आपके संवेदनशील हृदय में गाँव की वही छवि जो स्वाधीनता (आज़ादी) से पहले मुंशी प्रेमचन्द के हृदय में बसती थी, दिखाई पड़ती है–

गाँव नगर की चौपालों पर बिछने लगे बिछौने फिर। 
गर्म सियासत के चूल्हे पर चढ़ने लगे भगौने फिर॥

सजा हुआ बाज़ार हुस्न का कोठों और बरोठों पर, 
बुधिया की नीलाम हो रही इज़्ज़त औने पौने फिर॥

अनुभूति की तीव्रता और संवेदना की गहराई आपकी ग़ज़लों को विशेष बनाती है। जीवन सरलता से कब चल पाता है? कभी तूफ़ान, कभी झंझावात और कभी झंझानिल तो आते ही रहते हैं। ये सच हर आदमी भलीभाँति जानता है। यही कठिनाइयाँ जीवन को उजास देती है, साहस देती है, सफलता देती है, पर इसे सबके लिए स्वीकार करना मुश्किल होता है। सहृदय रचनाकार की रचनाधार्मिता ही इसे स्वीकार करके रास्ते की पहचान कराती है। यही स्वीकारोक्ति मुस्कान के साथ मुश्किलों को भी स्वीकारती है। 

बेचेनियाँ कभी सवाल करती है कभी ख़ुद ही जवाब भी तलाश लेती है। नई परिभाषाएँ बनती है जीवन में। पुराने सिद्धांत बदलते जाते है। कभी वक़्त के हाथों छोड़ना भी होता है। जीवन का ये लचीलापन ही सहज बनाता है। ये सत्य मन को कभी तोड़ता है तो कभी जोड़ता है। 

घर का परनाला अभी तक ठीक कर पाए नहीं, 
बाँधने में लग गए हैं अब नदी की धार लोग॥

भूल कर के सब पुरानी सभ्यता रिश्ते तमाम, 
व्यक्त करते हैं नए अंदाज़ में आभार लोग॥

नन्दीलाल ‘निराश’ जी की ग़ज़लों में अपने रूप, प्रकृति एवं तरतीब की विशेषताओं के कारण उनमें लोच और लचक विद्यमान है। वे हर ग़ज़ल अपने ख़्याल और अहसास को पूरे सौंदर्य के साथ बयान करने की गुंजाइश रखते हैं। नन्दीलाल 'निराश' जी की ग़ज़लों में युगीन चेतना के स्वर है। उनकी ग़ज़लों में सुकुमार प्रकृति है, मधुमास है, किसान का संघर्ष है, मज़दूर की घुटन है, स्तरहीन सियासत है, तुहिन-कण से अभिषिक्त ताज़गी भरी सुबह है, चढ़ते हुए दिन की तपिश है, शबनमी शाम है, भीगी हुई चाँदनी रात है, रिश्तों की दरकन हैं, औरत है, उन्मुक्त परिंदे हैं, प्रेम है, पीड़ा है, मिलन के साथ वियोग है, देश है, धरती है, बारिश है, गाँव है, शहर है, अतीत है, आँसू हैं, पंछी हैं, पानी है, फाल्गुन है और सावन भी है। 

मेरी ग़ज़लों में घर आँगन होता है। 
सच मानो हर रिश्ता पावन होता है॥

जब-जब आती याद बहन को भाई की, 
तब-तब इन आँखों में सावन होता है॥

आपकी बहुआयामी रचनाधार्मिता में कहीं भी भावों का दोहराव नहीं है। जैसा कि ये आपका आठवाँ ग़ज़ल संग्रह है इसके बावजूद भी आपकी हर ग़ज़ल में मौलिकता है, नवीनता है। मानवीय मिलन, विरह, उत्कंठा, लालसा, उल्लास, आनंद, व्यथा आदि के अनेक चित्र उनकी कलात्मक शब्दावली के माध्यम से ज़ाहिर है। प्रसिद्ध दार्शनिक और विचारक ओशो ने कभी कहा था–“खोजना है तो ज़िन्दगी खोजो, मृत्यु तो वैसे ही एक दिन खोज लेगी।” यही सूक्तिवाक्य आपके सतत चिंतन और लेखन का मूलाधार है जो ज़िन्दगी की खोज में अहर्निश तत्पर है। 

आपकी भाषा सरल है, सहज है, सुगम है, स्वाभाविक है और रचनाधर्मिता के सर्वथा परिवेशानुकूल है। कहीं भी पांडित्य का दुर्धर बोझ नहीं है। आपकी ग़ज़लों का प्रवाह देखते ही बनता है। 

कुछ तो मौसम देख स्वयं को आप बदल लेते, 
लेकिन कुछ को धीरे-धीरे वक़्त बदलता है॥

पैसा पुष्प प्रलोभन प्रतिभा प्रेम पराक्रम पर, 
राजनीति के दाँव पेंच में सब कुछ चलता है॥

इस संग्रह की ग़ज़लों को पढ़कर आपको भोगे हुए यथार्थ की झलक मिलेगी। संरचना की द्दष्टि से नन्दीलाल ‘निराश’ जी की ग़ज़लें समसामायिक हैं तथा उनकी ग़ज़लों के विषय का मधुरिम कैनवस हमारे अपने इर्द-गिर्द का है। नन्दीलाल जी पर माँ सरस्वती की कृपा बरसती रहे। वे यशस्वी हों, दीर्घायु हों इन्हीं स्वस्थ मंगल कामनाओं के साथ उच्च सम्मानित मानवीय जीवन मूल्यों के प्रबल पक्षधर श्री नन्दीलाल ‘निराश’ जी को इस सुन्दर सारगर्भित ग़ज़ल संग्रह के लिए निजी तौर पर मेरी तथा हिन्दी साहित्य की ओर से बहुत-बहुत शुभकामनायें। 

अंत में इस ग़ज़ल संग्रह के शीर्षक (दिल्ली नज़र आई) की सार्थकता में मैं अपनी सहमति देता हूँ कि:

हिमाक़त देखिए डर करके पीछे हट गया पल में, 
कहीं जंगल में चलते शेर को बिल्ली नज़र आई॥

बदल डाले मुखौटे, भेष, बाने, वस्त्र लोगों ने, 
यहाँ पर हर किसी को ख़्वाब में दिल्ली नज़र आई

श्री ‘निराश’ जी की रचनाओं के झरोखे के माध्यम से उनके जीवन के भावनात्मक पहलुओं से परिचित होने की हर सम्भावना पूर्ण हुई है। कितनी सरलता से संवाद करती है, उनकी रचनाओं में हम इसे आसानी से पढ़ सकते हैं देख सकते हैं। 

—अमरेश सिंह भदौरिया

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